सोमवार, 14 जून 2010

हमारी भाषा भी स्त्री विरोधी है

मुक्ति का सपना हर मनुष्य देखता है--औरत भी देखती हैङ्ककिन्तु 'मुक्ति' का अर्थ भिन्न-भिन्न सन्दर्भों में जुदाजुदा होता है। अभी भी भारत में ९०% स्त्रियाँ मुक्ति के विमर्श से अनजान हैं। अधिकांश तो अपनी गुलामी का जश्न मनाती दिखती हैं। जो मुक्त हैं या होना चाहती हैंङ्कउनमें भी कई स्तर हैं। सो मुक्ति के इस सपने को यथार्थ की धरती पर टटोलने की कोशिश की है हमने। स्त्रिायों की कितनी सहभागिता है। इसका सच गरिमा भारती के अंक १६१७ में प्रकाशित श्री.पी.आर.गौतम का आलेख उजागर करता है। श्री पी. आर गौतम के अनुसार--''भारत की कुल आबादी में ५२% पुरुष हैं। उसमें--२५% स्त्रियां कषि क्षेत्रा में काम करती हैं। ४ आदिवासी हैं। २% पागलखानों में भर्ती हैं, जिनके पतियों ने दूसरी शादी करने के लिए उन्हें पागल घोषित करवा कर पागल खाने भिजवा दिया है। १% औरत जेल में बंद है। ३% वेश्यावॐति में लगी है। ११% औरतें विधवा व निराश्रित हैं। इस प्रकार कुल ४६% स्त्रियां अक्षम हैं। शेष २% स्त्रियां ही बचती हैं। जो सक्षम हैं, और कुछ बोलबतिया सकती हैं या भागीदारी के काबिल हैं। इसी से अन्दज   लगाया जा सकता है कि २% स्त्रियों की भागीदारी उन्हें कितना मुक्त कर सकती है ! हाँ संविधान में भले सभी बराबर हैंङ्कयानि स्त्राीपुरुष बराबर। जमीन पर सभी गुलाम हैं। दरअसल ये शासक चाहते ही नहीं कि स्त्रिायाँ आजाद हों, अन्यथा वे स्त्राी के आरक्षण को पिछले १५ वर्ष से लटकाए नहीं रखते।
पुरुषों की मानसिकता को बदलना जितना जरूरी हैङ्कउससे ज्यादा जरूरी है खुद औरत की पुरुष दॐष्टि से लैस मानसिकता को बदलना। हमारे देश में औरत खुद कैसे उल्लासपूर्वक अपना दासतापर्व मनाती हैं, यह देखकर आश्चर्य होता है। संघड.चौथ का व्रत वह इस कामना से रखती है कि भले अगले जन्म में वह 'गधी* का जन्म ले, किन्तु उसके पति व बच्चे सुरक्षित रहें। करवाचौथ का व्रत तो पति के लिए ही रखा जाता है। स्त्राी के सुख व सुरक्षा का कोई नियमव्रत या पर्व किसी भी धर्म में निट्ठाार्रित नहीं है। इस्लाम में स्त्राी द्वारा रखे गए रोजेद्र का सवाब भी उसके पति को ही मिलता है। इसाई धर्म में तो औरत आदिम की पसली से ही बनी या बनाई गई। उसका स्वतन्त्रा अस्तित्व ही नकार दिया गया है।
हमारी भाषा भी कितनी स्त्राीविरोट्ठाी है या कहूं कितनी पुरुषवाद की क ायल हैङ्कयह स्त्राी के संदर्भ में प्रयोग होने वाले शद्बों से ही पता चल जाता है।
ऐसे तो विश्व में जितनी भी भद्‌दी अश्लील गालियां हैंङ्कसभी स्त्राी को या उसके अंगों को लेकर हैं। अजीब बात है कि स्त्राी के जिन अंगों के लिए पुरुष दीवाना बना रहता हैङ्कउन्हीं अंगों को वह गाली बना कर अपनी भड ास निकालता है। लगता है जैसे स्त्राी के आगे हार जाने पर हीनताग्रस्त पुरुषों ने ही हताशा में इन गालियों को गढ ा होगा।
'स्तन* शद्ब ही लीजिए! एक बच्चा (पुरुष भी अपने बालक रूप में उसमें शामिल होता है)ङ्कदूट्ठा पीकर ऊर्जा पाकर विकसित होता है, युवा होता है! उन्हीं स्तनों की महिमा में श्रॐंगाररस के कवियों ने ग्रन्थ पर ग्रन्थ लिख मारे हैंङ्कलेकिन वार्तालाप में 'स्तन* शद्ब का प्रयोग अश्लील माना जाता है। लगता है पुरुषों ने, चाहे पालक के रूप में हो या पति के रूप में इस शद्ब पर अपना निजि रूप से एकाट्ठिाकार जमा लिया है । बस अपने एकान्त के लिए सुरक्षित रख लिया इसे। एकान्त से बाहर प्रयोग अश्लील घोषित कर दिया गया। गाय या भैस अपने शावकों को 'थन* से दूध पिलाती है, उसी का पर्याय 'स्तन* भी है। विडम्बना यह है कि स्त्राी से जुड.ते ही यह शद्ब अश्लील हो जाता है। विचित्रा यह भी कि 'थन* तभव हो कर श्लील है और 'स्तन* तत्सव और अभिजात होकर अश्लील। यह पुरुषों की मानसिकता के साथसाथ अभिजात वर्गों व आम आदमी की सोच के अन्तर को भी प्रकट करता है।
स्त्राी की कोख से बच्चे पैदा होने पर घर भर में खुशियां मनाई जाती हैं। किसी को कोई एतराजद्र नहीं होता। पर चूंकि यही कोख् ा स्त्राी की देह का अंग हैंङ्कइसलिए वह न सिर्फ गाली का पर्याय बल्कि अश्लील और अपवित्रा भी बना दी गई । हालांकि इसी कोख के दीवाने हो कर विश्वमित्राों जैसे कई ऋषिमहर्षियों ने शकुन्तलाओं की परम्परा की नींव डाली या उससे अनेकों महापुरुष एवं तथाकथित अवतार, वीरपैगम्बर, फरिश्ते यहाँ तक कि ईश्वर भी प्रकट हुए।
दो और शद्ब हैंङ्क'स्वेच्छाचारी* और 'स्वतंत्रा* अथवा 'आजाद* ये दोनों शद्ब स्त्राी के संदर्भ में आते ही चरित्राहीनता के अर्थ में समझे जाने लगते हैं। यह अलग बात है कि 'स्वतन्त्रा* शद्ब आज के युग में देशों के 'स्वतन्त्रातासंग्रामों* से जुड.कर गौरवान्वित हो रहा है किन्तु साट्ठाारणतया स्त्राी के प्रसंग में प्रायः यह शद्ब आज भी 'एक बेलगाम स्त्राी* के अर्थ में ही प्रयुक्त होता है। ऐसे आजकल स्त्राी के सन्दर्भ में भी कहींकही यह शद्ब 'एक मुक्त या आजद्राद स्त्राी* के अर्थ में प्रयुक्त हो रहा है, जो शुभ है।
हमारा समाज पुरुष को तो स्वभावतः 'स्वातंत्रा* ही मानते आया है। स्वतत्रांता को पुरुष का जन्मजातसच या कहा जाय 'जन्मसिद्घ अनिवार्य अधिकार* माना जाता है। न जाने किन परिस्थितियों में 'स्वेच्छाचारी* शद्ब, खास कर औरत के संदर्भ में अवमानित कर दिया गया और वह एक 'व्यभिचारी* 'आवारा* या 'बदमाश* औरत के अर्थ में परिभाषित किया जाने लगा। हॉलाँकि 'स्वेच्छाचारी* शद्ब का सीधासपाट अर्थ या कहें शद्बार्थ होता हैङ्क'वह जो अपनी इच्छा से आचरण करे!* दरअसल अपनी इच्छा से आचरण करना तो किसी मनुष्य या व्यक्ति की स्वतन्त्रा प्रवॐत्तिा या मुक्ततता की भावना का द्योतक हैङ्कजबकि दूसरे की इच्छा से आचरण करने से दासत्व या गुलामी की ध्वनि निसॐत होती है। इतना स्पष्ट अर्थ होने के बावजूद भाषा में व्याप्त पुरुष शाउनिज्म ने इस शद्ब के अर्थ को नकारात्मक अर्थ दे दिया और औरत के स्वेच्छाचारी होने का अर्थ उसकी चरित्राहीनता का पर्याय बना दिया। तसलीमा नसरीन ने भी स्वेच्छाचारी शद्बको स्त्राीमुक्ति के सन्दर्भ में अधिक संप्रेषणीय और सही ठहराते हुए कहा हैङ्क''हाँ मैं स्वेच्छाचारी हूँ।**
सच तो यह है कि, जो औरत स्वेच्छाचारी होगी वही किसी पुरुष के प्रस्ताव को नकार या स्वीकार करने का साहस रख सकती है, जो औरत अपनी इच्छा से आचरण न कर सके, वैसी औरत में इन्कार करने की हिम्मत ही नहीं होती। किसी भी प्रकार की हिंसा, व्याभिचार, बलात्कार या छेड.छाड का शिकार आसानी से बनाया जा सकता है।
लेकिन वाह रे पुरुष का मन। कहीं स्वेच्छाचारी औरत अपने मन से किसी को वर न लेङ्कप्यार न कर लेङ्कया अपने ऊपर किसी को जबरन थोपे जाने से इन्कार न कर देङ्कइसी डर से उसने औरत के संदर्भ में इस शद्ब को ही 'अछूत* बना दिया।
तसलीमा नसरीन के शद्बों मेंङ्क''स्वेच्छाचारी का अर्थ जिस किसी के साथ सो जाना नहीं है। वही औरत स्वेच्छाचारी कहला सकती है, जो इच्छा न होने पर मर्द के साथ न सोये और सोने से इनकार कर दे।**
मैनें अपनी घोषित निजि आत्मकथा का नाम 'स्वेच्छाचारी* शद्ब का पंजाबी पर्याय 'आपहुदरी* रखा चूंकि मेरी नजद्रर में केवल 'स्वतंत्रा* होना औरत की मुक्तिमुहिम के सम्पूर्ण लक्ष्य को निर्दिष्ट नहीं करता। आन्दोलन का लक्ष्य केवल औरत का पुरुष वर्चस्व से मुङ्कत होना ही नहीं है। वह अपनी इच्छानुसार मुङ्कत आचरण करने का साहस भी रखती होङ्कउसमें निर्णय लेने की क्षमता ही नहीं, बल्कि उसका परिणाम भोगने की हिम्मत व हौसला भी हो हमारा अभीष्ट उसका आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर, मानसिक तौर पर साहसी और सबल होने के साथसाथ, नैतिक तौर पर एक 'आजाद इनसान*ङ्क'एक मुङ्कत मनुष्य*, 'एक स्वच्छंद इकाई*, एक 'जिम्मेवार नागरिक* होना भी है। एक स्वेच्छाचारी औरत ही ऐसी सक्षम औरत हो सकती है चूंकि वह इनकार करने का जोखिद्रम उठाने और स्वीकार करने का साहस भी रखती है। हमारा अभीष्ट है ऐसी औरतें जो अपना निर्णय खुद लें और उसका फल भोगने को भी तैय्यार रहे। जो हवा में मुङ्कत उड ने का दम भरने की हिम्मत रखे और अपनी इच्छाओं को 'गुनाह* नहींङ्क'नेमत* माने प्रकॐतिप्रदत्ता गुण माने। जो प्रेम करने से डरे नहीें। स्वेच्छाचारी व मुक्त औरत कायर नहीं होती। मुङ्कत औरत नैतिकता के नाम पर गुलाम रहने को मजबूर नहीं होती। वह अपनी नैतिकता स्वयं गढ ती है।

ऐसे तो हर जीवन के बदसूरत पहलुओं से रूबरू होने को अभिशप्त है औरत! उसे खूबसूरत पहलुओं से वंचित रखने के लिए समाज ने, खासकर पुरुष समाज और उनके हथियार बने धर्म ने कड.े नियमकायदे गढ रखे हैं। णान की तरह ही खूबसूरती देखना, खूबसूरत सुनना, खूबसूरत सोचना सभी की तो मनाही रही है औरत के लिए। इस खूबसूरती के रूबरू होने के लिए उसे 'आपहुदरी*, 'स्वेच्छाचारी* औरत बनना ही होगा, अन्यथा उसे बिसूरने के अलावा कुछ हाथ नहीं लगने वाला।
तसलीमा नसरीन के शद्बों मेंङ्क''इन्सान अगर खुद को ही नहीं पहचाने, तो वह किसको पहचानेगा?**
इसलिए जरूरी है स्त्राी खुद को पहचाने। वह केवल खुद को पहचाने ही नहींङ्कमेरा मानना है वह खुद को भी प्यार करे। यदि वह खुद को प्यार नहीं करेगी तो कौन करेगा उससे प्यार? कब खड ी हो सकेगी वह सर ऊंचा उठा कर? इसके लिए जरूरी है कि वह स्वच्छन्द होङ्कस्वेच्छाचारी हो, पंजाबी में कहूँ तो 'आपहुदरी* हो।
वह दूसरों के फैसलों पर नहींङ्कअपने फैसलों पर आचरण करे!

3 टिप्‍पणियां:

talib د عا ؤ ں کا طا لب ने कहा…

ramnika ji aapn achcha likhti hain bawaqaar writer hain .aapse ummeed to ki hi ja sakti hai ki aap jo bhi likhengi bina kisi reference k nahin hoga.lekin aapne ye kis base par likh diya k इस्लाम में स्त्राी द्वारा रखे गए रोजे का सवाब भी उसके पति को ही मिलता है।
merharbani kar batayen k aisa aapne kis islamic kitab me padha.

talib د عا ؤ ں کا طا لب ने कहा…

islam aur musalmanon k baare me aksar so called comuniston aur sanghiyon k khyaal milte kyon hain!!!!!!!!!!!!

डा श्याम गुप्त ने कहा…

---पूरी तरह से बकवास आलेख है, स्त्री-विमर्श, स्वतन्त्रता, मुक्ति सभी मूर्खतापूर्ण शब्द व विचार हैं।
---स्त्री को कुछ नहीं करना है, वह तो ईश्वर का दिया हुआ कार्य समुचित ढन्ग से कर ही रही है, करती रही है, करती रहेगी...
---सुधरना तो सिर्फ़ पुरुष को है, पुरुष ही अपने विचार, मन्तव्य, द्रिश्टिकोण बदलें---स्त्री को अपनी पूरक, साथी, सहचरी सम्झें, बराबर का हक दें। विचार पुरुष विमर्श का होना चाहिये.
---दोनों ही सत्य, धर्म , न्याय के आचरण करें और ---स्त्री-पुरुष विमर्श की बातें होनी चाहिये।


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