सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

मिथक : काव्यमय कौमों के दस्तावेज

टेलर ने बहुत पहले प्रमाण दिया था कि मिथकङ्ककविता में अभिव्यङ्कित, आदिम इतिहास और एथनॉलोजी है। एक कवि उस स्वाभाविक दुनिया को वैणानिक मनुष्य की दॐष्टि से परख.ता है, तो मिथसॐजक अपने इस आविष्कार को दूसरे ढंग से कहता है। एक आदिम कवि अपनी प्रेरणा को मिथक के रूप मेंङ्कमनुष्य और प्रकॐति के बीच अनन्त, सीमाहीन, सभ्यताओं से गढ ता है, जो उसकी कविता की आत्मा हैं।
टेलर के अनुसारङ्क''इसलिए यहाँ मिथक की सत्यता का प्रश्न अप्रासांगिक हो जाता है। मिथ अपने सॐजकों का इतिहास है, उसके विषय का नहीं। मिथ सुपर ह्यूमैन हीरो (भ्मतव) की जीवनियां दर्ज नहीं करतेङ्कवे काव्यमय कौमों का दस्तावेज होते हैं।**
दुनिया और आकाशीय पिण्डों की उत्पत्तिा और सॐजन की कथाओं में मिल्टन जैसा आभामय आभास मिलता है। उनकी कल्पना में पॐथ्वी और आकाश दो प्रेमी हैं। जब आकाश सॐष्टि से प्रणय करता है, तो पेड.पौट्ठो, पशुपक्षी जन्म लेते हैं। किन्तु पे्रमियों को तो अलग होना ही है। यदि वे आलिंगनबद्व रहेंगे, तो बच्चों के लिए जगह कहां रहेगी? 'मिनियोग* कथा के अनुसार पॐथ्वी सदैव अपने प्रेमी आकाश के साथ आलिंगनबद्घ होने के लिए छटपटाती है। किन्तु जैसे ही वह अपने प्रियतम आकाश से मिलने के लिए ऊपर की ओर उठने को होती हैङ्कउसके दोनों बच्चे सूर्य और चन्द्रमा, आकाश और उसके बीच आ जाते है। पॐथ्वी शरमा कर रुक जाती है। वह आगे नहीं बढ  पाती। पॐथ्वी का जो भाग आकाश की तरफ उठ रहा था, वह सदा के लिए जस का तस उठा ही रह जाता है। वही हिस्सा आज पहाड  कहलाता है।
'सिगंमों* कथा के अनुसार इन्द्र ट्ठानुष वह सीढ.ी है, जिस पर चढ कर सर्वशङ्कितमान अपनी पत्नि से मिलने चन्द्रमा पर जाता है।
जब से सॐष्टि बनी और मनुष्य ने बोलना और सोचना शुरू किया, संभवतः तभी से कल्पना ने उड ान भरनी शुरू की। मनुष्य ने जब अपनी कल्पना को 'कहकर* सुनाया, तो 'कहानी* बन गई।
अंग्रेज ी की 'टेल* (ज्ंसम) 'टैल* क्रिया की संणा है शायदङ्कऔर हिन्दी की 'कहानी* 'कहा* की। ये कथा, ये कहना, ये सुुननासुनानाङ्कवह विट्ठाा है, जो लोक से जुड ी है। विश्व भर में मनुष्य अपनेअपने ढंग से, अपने आग ाज  की जिणासा को लेकर अपनी कल्पना, अनुभव और सपनों को कई विट्ठााओं में ढालता रहा है।
लोक के यही सपने, अपेक्षाएं, कल्पनाएं, 'विट्‌स* एवं निष्कर्ष लोककथाओं का रूप लेते आए हैं। संभवतः सॐष्टि एवं मनुष्य का उद्‌गम और प्रकॐति का भेद और आग.ाज  जानने की उनकी जिणासा, उत्कण्ठा और कोशिश, भिन्नभिन्न मिथकों का रूप ले लेती रही है। मिथक के साथ एक आदर का भाव जुड  जाता है, चूंकि वह इतर की व्याख्या करता है, इसलिए लोक से इतर हो जाता है। आदिवासियों के यहाँ कोई शास्त्रा, ट्ठार्मग्रन्थ (स्क्रिप्चर्स) या पवित्रा ग्रन्थ आदि नहीं होते, इसलिए ये मिथक एक विरासत की तरह सदियों से हर बरस किसी न किसी अनुष्ठान के वङ्कत दोहराये जाते हैं। उनकी विरासत कोई मन्दिर या भवन नहीं बल्कि पूरी की पूरी प्रकॐति है! प्रकॐति ही उसका स्थान हैङ्कथान हैङ्कआवास है, इसलिए आस्था का कोई के्रन्द्र जड  रूप ट्ठाारण नहीं करता। इन मिथकों व कथाओं को गढ ने वाले सॐजक अनाम ही होते हैं। वे इन्हें लिखते नहीं,  कहते हैं। हर कथा कहने वाला या सुनाने वाला, कुछ ना कुछ अपना भी जोड ते रहता है। इसलिए एक ही कथा, कहने वालों के 'अंदाजे बयां* के अनुसार बदलती रहती है। कभीकभी तो नायक तक बदल जाते हैं। निष्कर्ष बदल जाते हैं, पर इस सब के बावजूद कथा का आट्ठाार वही रहता है।
लोककथाएं या मिथक विश्व की हर भाषा में होते हैं। आदिवासी मिथक व लोककथाओं कीे ख.ास विशेषता यह है कि वे अपनी संस्कॐति के अनुरूप हर अस्तित्व की कल्पना करते हैं और अपनी तत्कालीन समझ के अनुसार उनकी व्याख्या। आदिवासी के जीवन क्रम में, जो कुछ भी घटता है या जिसे वह घटते देखता, सुनता, परसता या महसूसता है व उसे दर्ज करता है। यह सब कैसे हुआङ्कङ्कयों हुआङ्कइस सब की व्याख्या वह अपनी कथाओं या मिथकों के माट्ठयम से करता रहता है। इन कथाओं की सबसे बड ी खूबी हैङ्ककल्पना की उ×ंची उड ान के साथसाथ, ट्ठारती के भीतर तक पहुँच, अपनी जड ों को छू आना। उनकी कल्पना एक तार्किक रूप ले लेती है और यथार्थ की ठोस जमीन उन्हें चमत्कार से बचाती है।
आदिवासियों ने सॐष्टि, पॐथ्वी और मनुष्य के साथसाथ प्रकॐति के विभिन्न रूपों को भी अपनी कथाओं के पात्रा बनाया है। भिन्नभिन्न कबीलों में, भिन्नभिन्न भौगौलिक स्थितियों के अनुरूप, भिन्नभिन्न व्याख्याएं हुई हैं, उन सब की गणना तो यहां संभव नहीं है, फिर भी कतिपय उदाहरण उनकी इस अद्‌भुत क्षमता की बानगी जरूर दे देंगे। वे बादल, बिजली, नदी, पहाड., बांसुरी, चांदसूर्य के सॐजन की कथा कहते हैं, तो प्रेम के अनंत रूपों की अनंत कथाएं भी सिरजते, सुनाते और जीते हैं। ये कथाएं मनुष्यों से लेकर चौपायों, दोपायों और पक्षियों तक के प्रेम से पगी होती हैं। ये कथाकहानियां और किस्से, प्रागैतिहासिक काल से सदीदरसदी, पीढ ीदरपीढ ी चले आ रहे हैं। सुनाने वाले बदलते गए हैं। पात्राों के नाम तक भीङ्कजबतब और जहांतहां समयानुसार बदल जाते हैं, लेकिन उनमें अंतरनिहित विचार, संवेदना या विचार की अवट्ठाारणा वही रहती है। अरुणाचल में 'कोबाङ* की कथा प्रागैतिहासिक काल से पहलेङ्कजब पशु मनुष्य बनने की प्रक्रिया में था, से चली आ रही है। यह जनतांत्रिाक प्रणाली के अस्तित्व की कथा है, जिसके नायक एवं पात्रा पहले पशु थेङ्कफिर पशुओं के साथ अर्द्घमनुष्य एवं मनुष्य जुड. गए और अन्त में केवल मनुष्य रह गए। यह कथा आज के जनतंत्रा को भी समेटती है।
मिजोरम की रूथ ललरेमरूआती के मिथकों मेंङ्क''मनुष्य अपनी कल्पना द्वारा 'सब कुछ कैसे घटा*, जैसे प्रश्नों के उत्तार देता रहा है। इन्हीं सवालों को बाद में विणान ने तर्क द्वारा सुलझाया और समझाया। मनुष्य अपनी कल्पना के बल पर उन समस्याओं के जो उत्तार देता रहाङ्कवही मिथक कहलाते हैं। बहुत से मिथक मनुष्य, पशु व दुनिया के सॐजन को व्याख्यायित करते हैं, तो कुछ यह बताते हैं कि कतिपय पशुओं में वैसी प्रवॐत्तिायां कैसे आईं या वे ऐसा आचरण ङ्कयों कर है? वे यह भी बताते हैं कि ङ्कयों और कैसे कोई प्राकॐतिक घटना घटी और कैसे अनुष्ठान और उत्सवों का उद्‌भव हुआ। ये सभी तथ्य दूर अतीत में घटित माने जाते हैं। कई मिथकों के मुख्य पात्रा, प्रायः मनुष्य नहीं होते, लेकिन उनमें मनुष्यों के गुण होते हैं। इस प्रकार की लोककथाएं मिजो में बहुत कम पाई जाती हैं। जो पाई भी जाती हैं वे अति संक्षिप्त होती हैंङ्कलम्बी नहीं।**
कहीं वीरों के साहस और शौर्य को किस्सों, लिजिन्द्रियों या बैलेड्‌स के रूप में सुनाया जाता है, तो कहीं गीतों में गाया जाता है। साट्ठाारणतः लोक कथाओं में मिथ, लिजिन्द्रियां व लोककथाएं ही समाहित होती हैं। आदिवासी समाज व कबीलों में वे सदैव गद्य में ही कही जाती हैं। कहींकहीं वे पद्य में भी गाई जाती हैं, जैसे अरूणाचल प्रदेश में रात भर प्रागैतिहासिक काल कीङ्क'कोबाङ* व अन्य गाथाएं। ये मिथक, लिजिन्द्रियां या लोककथाएं एकदूसरे से इतनी जुड.ी होती हैं कि इनमें विभाजन रेखा खींचना कठिन हो जाता है। फिर भी मोटामोटी इन कथाओं व मिथकों को विषय के अनुरूप कतिपय भागों में बाँटा जा सकता है। मैं कुछ का जिक्र नीचे कर रही हूँ।
सॐजन के मिथक : सॐष्टि, पॐथ्वीआकाशमनुष्य, प्रकॐतिबादलबिजली, सूर्यचंद्रमा, पेड.पौट्ठो, अग्निजलहवा, पशुपक्षी, वर्षासूखाड , नदनदीनाले, मनुष्य निर्मित वाद्ययंत्रा, बांसुरी, सेरजा, नगाड ा, ढोल आदि की उत्पति च सॐजन से जुड े मिथक अत्यंत ही कल्पनाशील, तार्किक और कहींकहीं विकास की सीढि यां चढ ते हुए इतने वैणानिक लगते हैं कि डार्विन की याद आ जाती है। कार्बी, बोडो, संताली व आपातानी जनजातियों की सॐजन कथाएंङ्ककहीं पानी से मिट्टी छान कर, तो कहीं मिट्टी  गूंथ कर ट्ठारती के निर्माण की कथा कहती हैंङ्कतो कहीं दो अंडों, दो जीवों, या पुुतलों  के निर्माण से मनुष्य के निर्माण की कथा सुनाती हैं।
प्रेम कथाएं : इनकी प्रेम कथाएं प्रेमीप्रेमिका, पतिपत्नी, मांबेटे, भाईबहन, मांबेटी और मित्रामित्रा के रिश्तों में प्रेमकड वाहटशंकाविश्वासवफादारीउङ्कताहट आदि सब तरह के भावों से लैस होती हैं। इनकी कथाओं के पात्रा केवल मनुष्य ही नहीं, सॐष्टि के सभी प्राणी हो सकते हैं।
खासी की 'रायताँग* और 'पेड की* या मिज ो की 'ट्‌वेलबुंगी* कथाएं प्रेम की ऊँचाइयों को छू लेती हैं।
कायान्तरण : इनकी कथाओं का एक केन्द्र है कायान्तरण। इसमें मनुष्य राक्षस या पशुपक्षी का रूप ले लेता है या पशुपक्षी या राक्षस मनुष्य का। प्रायः बुरी स्पिरिट (प्रवित्तिायां) कायान्तरण करती हैं और मनुष्य को ठगती हैं। कई बार मनुष्य भी बुरी प्रवॐत्तिा (स्पिरिट) के विनाश के लिए कायान्तरण करता है। कई कायान्तरण मूर्खतावश भी होते हैं। अलगअलग कबीलों में कायान्तरण के अलगअलग रूप होते हैं। लेकिन पशुपक्षी व राक्षस हर कबीले की कथा में मौजूद होते है। 
मानवीकरण की कथाएं : ये कथाएं पशुपक्षियों में मानवीय संवेदना से ओतप्रेत होती हैं और पशुपक्षी मानव हित में मनुष्य का रूप लेकर मनुष्य की मदद करते हैं। कहींकहीं उलट भी होता है। वे मनुष्य बनकर मनुष्य को ट्ठाोखा भी देते हैं। सभी जनजातियों में ऐसी कथाएं मौजूद होती हैं।
मूर्खता व चतुराई की कथाएं : इन कथाओं में व्यङ्कित विशेष का चरित्रा प्रमुख होता है। उस व्यङ्कित की मूर्खता या चतुराई के फलस्वरूप जो भी घटता है, उसमें कहींकहीं कुछ न कुछ निष्कर्ष ट्ठवनित होता है। यह हितकारी होता है तो कहीं केवल मनोरंजनकारीङ्कऔर कहींकहीं नुकसानदेह भी। चतुर व्यङ्कित अपनी चतुराई के कारण, जहां सफल होता है, वहीं ट्ठाोखा भी खाता है।
मिज.ोरम के 'छूरा* नामक पात्रा की कथाएं इसी श्रेणी में आती हैं।
मिज ो मन ने अपने समाज में एक व्यङ्कित या पात्रा विशेष को 'छूरा* नाम से चिन्हित किया है। यह पात्रा व्यङ्कितगत व सामाजिक जीवन में मूर्खता, चालाकी और मासूमियत में किए गए अपने कारनामों के अंजाम से बेखबर, ऐसे कॐत्य करता है, जो कभी उसे ही किसी जालजंजाल में फंसा देते हैं, तो कभी उसके विरोट्ठिायों को। कभीकभी तो उसके कॐत्य पूरे समाज में हलचल मचा देते हैं। वह कभी नायक नज र आता है तो कभी खलनायक, कभी चतुर तो कभी महामूरख!
उपदेशात्मक कथाएं : आदिवासियों में उपदेश देने की कथाएं विरल ही मिलती हैं। आदिवासी कथाकार यह मानकार चलता है कि कथा में  घटनाक्रम या उसका निष्कर्ष स्वतः ही व्यङ्कित में अच्छेबुरे की समझ पैदा कर देता है। इसीलिए उनकी कथाओं में उपदेश नहीं, घटनाएं होती हैं और होता है एक सीट्ठोसाट्ठो मनुष्य का मनुष्यता और प्रकॐति में विश्वास। उनकी कथाएं प्रायः घटना के स्वभाविक क्रम एवं निष्कर्ष पर समाप्त होती हैंङ्कवे अलग से कोई निष्कर्ष प्रस्तुत नहीं करतीं। खासी की कथा 'पान* वाली मित्राता के लिए अति उत्साह या दिखावे के लिए किये गये आडंबरपूर्ण सत्कार या कॐत्य से हुई हिंसा के बरङ्कस, मित्राता की एक अति विनम्र अचारसंहिता प्रस्तुत करती है। इसके अनुसार मित्रा के स्वागत में प्रेम से दिया 'पान* का एक बीड.ा ही पर्याप्त होता है। अतिउत्साह अनिष्टकारी व घातक भी हो सकता है।
सांस्कॐतिक कथाएं : सांस्कॐतिक कथाएं उनके त्योहारोंपर्वो व अनुष्ठानों से जुड ी होती हैं, जो दरअसल सॐष्टिपॐथ्वी व मनुष्य की उत्पत्तिा व विभिन्न मौसमों, फसलों, पेड ों, पौट्ठाों की महिमा व महत्व बखान करती हैं। पुरखों की गोत्राकथाएं या कबीले और उनके पुरखों के विस्थापन, पलायन और बसाहट की कथाएं दरअसल अपने गर्भ में उन कबीलों का ही नहीं, मनुष्य मात्रा के विकास और  इतिहास का इत्तिावॐत्ता लिए होती हैं, जिसके विश्लेषण की भारी जरूरत है। इतिहास की कई गुमशुदा कडि यां (डपेपदह स्पदो) इन कथाओं में खोजी जा सकती हैं। इनमें हिन्दू पुराणों व अन्य ट्ठामोर्ं की चमत्कारिक कथाओं की तरह आस्था जगाने के लिए चमत्कार, अजूबे या पराशङ्कितयों का सहारा नहीं लिया जाता। ये  उनके सीट्ठोसादे अनुभवों व उनके महापुर×षों के संघर्षो की कथाएं होती हैं। संस्कॐति उनके जीवन का हिस्सा है और जीवन के रहने की शैली उनकी संस्कॐति है। इसलिए जीवन से जुड ी उनकी ये कथाएं, उनकी संस्कॐति का अंग होती हैं, जो उनके पारिवारिक रिश्तों की गरिमा को भी व्याख्यायित करती हैं।
शौर्यगाथाएं : शौर्य के मिथक या कथाएं प्रायः यथार्थ के मन्थन का काल्पनिक निष्कर्ष होती हैं! कभीकभी ठोस यथार्थ भी मिथकीय चरित्रा, पात्रा या नायक बन जाता है। कभीकभी मिथकीय चरित्रा या पात्रा अथवा नायक यथार्थ से भी बड.ा सत्य बन कर समाज का मार्गदर्शक या समाजिक आदर्श का संवाहक बन जाता है। उनकी शौर्यगाथाएं जहाँ इतिहास के महत्वपूर्ण घटनाक्रम को उजागर करती हैं, वहीं वे उसके चरित्रा, हौसले और संकल्प को मिथकीय प्रतीकों में ढालकर पूर्वोत्तार के आदिवासी मानस को एक आदर्शसंहिता देकर आंखों में सपने भर देती हैं।
ये मिथक, आदिवासियों के विस्थापनपलायन, आपसी और बाहरी कबीलों व हमलावरों के साथ हुए संघर्षों अथवा प्राकॐतिक आपदाओं से जूझने के दौरानङ्कपूरे समाज व समाज के चंद व्यङ्कितयों द्वारा समाज के रक्षार्थ उठाए गए जोखि म, साहस तथा शौर्य की गाथाएं होते हैं, जो लिजिन्द्रियों या बैलेड्‌स के रूप में प्राय गाये व सुनाये जाते हैं। सच होने के बावजूद हमारे इतिहासकारों ने किसी पूर्वाग्रह या एक साजिश के तहत इन्हें  नज रअंदाज  कर दियाङ्कसंभवतः जानबूझ कर। सच कहा जाए तो हम और हमारे इतिहासकार अपने अभिजात्य पूर्वाग्रहों से ग्रस्त थे। आज इन कथाओं की सत्यता सिद्घ हो रही है और आदिवासी खुद इन्हें इतिहास का हिस्सा बनाने के लिए प्रतिबद्घ और कटिबद्घ हो रहे हैं। झारखंड के सिट्ठाोकान्हू, तिलका माँझी, बिरसा मुण्डा और कर्नाटक की रानी चिनम्मा और अंग्रेजी हुकूमत के कर्मचारी रायन्ना एवं आंट्ठा्रप्रदेश के सीताराम राजूङ्कमुङ्कित, विद्रोह और ऊलगुलान के प्रतीक बन गए हैं।
शौर्यगाथाएं प्रायः दो प्रकार की होती हैंङ्कएक अंग्रेजों से जूझने वाले वीरों और वीरांगनाओं की इतिहासपरक कथाएं, तो दूसरी अपने या दूसरे कबीले के शासकों व अत्याचारियों से लोहा लेने वालों की किंवदन्तियों, लोककथाओं व लोकगीतों पर आट्ठाारित नामअनाम वीरों की प्रतीकात्मक कथाएं। वीरता, शौर्य, ट्ठौर्य और बलिदान के अद्‌भुत कारनामों से लैस व समॐद्घ ये कथाएं, जनमानस का हौसला, उत्साह हिम्मत और कुर्बानी तथा अपनी बात पर दॐढ. रहने के आदर्श मानदंड प्रस्तुत करती हैं। अलबत्ताा कहींकहीं इनमें बदला लेने के संकल्पों की झलक भी होती है।
मिज ोरम की रानी रूपलियानी, मेघालय के तिरोत सिंह एवं नंगबाह, मणिपुर और नागालैंड की रानी गुडलियानी और असम के वीर शंम्भुट्ठान अंगे्रजीराज से टङ्ककर लेते जीवन भर जेल काटे, मारे गये या फांसी पर चढ ा दिए गए वीरों की कथाएं हैं, तो वीर दिमालू जैसी गाथाएं अपने ही साथियों के षडयन्त्रा से मारे गए वीरों की। कार्बी में तो अनेक स्थानीय वीरों की कथाएं हैं, जो लिजिन्द्री या वैलेड्‌स के रूप में गाँवगाँव में गायी जाती हैं। अरूणाचल प्रदेश में प्रागतैहासिक काल से वीरों की गाथाएं चली आ रही हैं और रातरात भर उनका गान होता है। त्रिापुरा में इनकी शौर्यगाथाएं एक तरफ महाभारत से जा जुड ती हैं, तो दूसरी तरफ आज के शोषकों के विरुद्घ लड तेलड ते मरने वालों की कतार में भी इनमें शामिल है। सिङ्किकम में लेप्चा व भोटिया जनजातियों के वर्चस्व की लड ाइयों में कई वीरगाथाएं घटीं, जो आज भी उनके मन को हौसला बंट्ठााती हैं और उन्हें सर ऊंचा उठाकर चलने को प्रेरित करती हैं।
नागाकथाओं में स्थानीय कबीले के वीर नायक अपनी परम्परा के लिए या किसी अन्यायी परम्परा के खिलाफ जोखि.म या प्रेम की उ×ंचाइयां छूने के लिए बड ा से बड ा जोखिम उठाते हैं। उनकी प्रेम कहानियां वीरता के कारनामों से ओतप्रोत होती हैं। उन्हें दोनों श्रेणियों में रखा जा सकता हैङ्कप्रेम कथाओं में भी और शौर्य गाथाओं की श्रेणी में भी। ये प्रायः गीत रूप में वैलेड्‌स की तरह गाई जाती हैं। जरूरी नहीं ये इतिहासपरक हों, लेकिन परम्पराओं का ऐतिहासिक तत्व उनमें जरूर होता है। नागालैण्ड की एक ऐसी ही कथा है 'त्सोउ× और तेरहुओपुडियू की प्रेम कहानी*। इसके लेखक हैंङ्कसिवेस्टियन जुमवू। सॐजन के मिथक प्रायः संवाद से जुड े होते हैं। संवाद का यह प्रचलन उनकी लोकगाथाओं में भी मौजूद रहता है। इसलिए जरूरी है इन सॐजन गाथाओं से संवाद की यात्राा पर निकलना। आइये चलें सॐजनगाथा से संवाद करें।
सॐजन गाथा से संवाद
पूर्वात्तार की लोककथाओं, मिथकों, खासकर सॐष्टि, पॐथ्वी, प्रकॐति व मनुष्य की सॐजनकथाओं को अनुभव करने के लिएङ्कआइए आज हम  उनकी सोच व सपनों के साथ जिएं, उनके तर्कों और निष्कर्षों को ग्रहण करने के लिए उनकी कल्पना के साथ उड.ें! हो सकता है आदिम की सोच के विकास की पर्तें हमारे सामने खुदबखुद उघरने लगें। इन परतों को तथाकथित सभ्य लोगों ने दर्ज नहीं किया। इतिहासकारों या शास्त्राों के रचियताओं ने भी इनकी उपेक्षा की। इसके बावजूद सदियों का अन्तराल इन्हें मिटा नहीं सका। ये परतें आज भी उनके सपनों में तैरती हैं, उनके जीवन के साथ जीती हैं, विकसित होती हैंङ्कउनकी अभिलाषाओं को पोसती हैंङ्कऔर संकल्पों को बल देती हैं। उनका इतिहास उनके अनुष्ठानों और पर्वों में हर बरस दोहराया, सुनाया और सुना जाता है। अब वे भी लिखना सीख गए हैं। पहले बहिरागत लोग लिखते थे, अब वे खुद लिखने लगे हैं और ये वे लोग हैं जिनके पास सौ बरस पहले तक कोई लिपि नहीं थी। विदेशी ही सही, पर लिपि तो इन्हें उन्होंने ही दी। आज वे खुद अपनी लिपियां निर्मित कर रहे हैं। पंख लग गए हैं उनकी कलम को। आइये! उनकी कलम के पंखों पर सवार होकर, उनकी कल्पना के क्षितिज में झांक आएं हमङ्क्त! उनकी सोच के शिखर के सहारे उनकी गहराइयों में डुबकी लगाकर, थाह ले लें उनकी असीमता कीङ्क्त उनके हौसले के घोड े पर सवार हो जोखि मों की वह हर डगर नाप लें, जिस पर वे सदियों से चलते आ रहे हैं।
तनि और पीछे जाइए! शायद वहाँ मंगोलिया से चीन, तिब्बत या वर्मा पार से गुजर कर आ बसा है एक बोडो समूह, जो रेगिस्तानी कैङ्कटस के देवताङ्कजिसे वह सदियों से ढोये चल रहा हैङ्कको भी अपने साथ ले आया है! शायद यह असम है या त्रिापुरा का जंगलङ्कजहां वह अब बोरो नहीं बोरोक कहलाता है। ये समूह 'सेरजा* (एक प्रकार का वाद्ययंत्रा) की उत्पत्तिा की कथा, पहाड.ी सुर बांट्ठा कर सुनाता है। हंस के अंडों से अपनी उत्पत्तिा मानने वाला यह समूह समाज के नियमन के दायरे में चांद और सूरज को भी रखता है।
आइए दूर कहीं हिन्दुस्तान के ट्ठाुर उत्तारपूर्वी कोने में जहां बर्मा से सीमा मिलती हैङ्कमिलें इस मिजो और नागा समूह से, जो सुना रहा है इज राइल से अपने पलायन की कहानी। वह गा रहा है चीन में बिताए समय और संघर्ष की कथा, जब वे चीन की दीवार में सेंट्ठा लगाकर बर्मा होते हुए मिजोरम, नागालैण्ड और मणिपुर में आ बसे और अरुणाचल तक जा पहुंचे। मिजो व नागा लोगों की उत्पत्तिा की कथा के अनुसार, वे एक गढ े में बंद थे और खूब शोर मचाते हुए बाहर की ओर भाग रहे थे। सर्वोपरि शङ्कित ने उस गढ े पर पत्थर रख दिया। उसे डर था कि शायद ये लोग संख्या में इतने अट्ठिाक हैं कि यदि सभी के सभी बाहर आ गये तो सारी पॐथ्वी पर कब्जा कर लेंगेङ्कतब बाकी कबीले कहां रहेंगे? आज भी शायद इस कथा को यादकर मुस्करा रहे हैं वे लोग। उनका मानना है कि सर्वोपरि शङ्कित के भयभीत होने के कारण ही वे संख्या में कम रह गए।
इस कथा की व्याख्या आज लोग एक ऐतिहासिक घटना से जोड.कर भी करने लगे हैं। इस मान्यता के अनुसार ये कबीले इजराइल से पलायन करके जब आ रहे थे तो इन्हें चीन में रोक लिया गया। कई सदियों तक ये वहीं रहे। लेकिन उन्हें वहां रहना रास नहीं आया और एक दिन वे योजनाबद्घ ढंग से चीन की दीवार में सुरंग बनाकर भाग निकले और बर्मा होते हुए मिजोरम पहुंचे। गढ े से बाहर आने की उनकी उत्पत्तिाकथा को आज ये चीन की दीवार में सुरंग बना कर भागने के रूप में व्याख्यायित करने लगे हैं।
उनके पुरखे उन्हेें ये कथा भी सुनाते रहे हैं कि सर्वोपरि शङ्कित ने उन्हें लिपि दी थी कि वे लिखें। रात में जब वे नॐत्य मग्न थे तो वे भूल गए कि चमड े पर लिखी हुई लिपि बाहर ही छूट गई, जिसे रात में कुत्ताा खा गयाङ्कऔर वे लिपि से वंचित हो गए। इस प्रकार पुरखों ने उनके पास लिपि न होने की व्याख्या भी कर दी थी।
लेकिन इस बार लिपि देने वाली कोई शङ्कित नहीं बल्कि गोरे रंग के विदेशी थे। वे बताते हैं कि बाईबिल पढ ाने के लिए अंग्रेजों ने उन्हें लिपि सिखाई। यह लिपि ट्ठवनि के आट्ठाार पर बनाई गई थी, ङ्कयोंकि आदिवासी जमात एक तीरंदाज जमात है। वह शिकार से ही अपना गुजरबसर करती है और तीरंदाजी के लिए ट्ठवनि का अर्थ हैङ्क'जिन्दा रहने का साट्ठान।* बस बना दी थी अंग्रेजों ने रोमनलिपि और मिजोजन दुनिया से जुड ने लगे। अब वे अपनी बात लिख कर कहने लगे हैं।
मेघालय के सदैव हरियाले आकाश से होड. लगाते, पगपग पर बहते नदनदियों के आईने में झाँकते रहते हैंङ्कपहाड । उन पर रहते प्नार, खासी, जयन्तिया, गारो समूह बारबार आकाश को देखतेङ्कप्रायः आकाश से बतियाते रहते हैं। शायद वे बतिया रहे हैं आकाश में छूट गए उन नौ कबीलों के बारे में, जिन्हें छोड कर ये सात कबीले ट्ठारती पर खेती करने उतरे थे। एक दिन बता रहे थे यह झरनों को, हवा को, ट्ठारती को कि कैसे आकाश से उतरे पन्द्रह में से सात कबीलों के सरदार के मन में ट्ठारती पर बसने की इच्छा जगी थी! कैसे उसने आकाश से ट्ठारती तक बनी सब सीढि यां एकएक कर काटनी शुरू कर दी थीं! लौटने के दिन सातों कबीलों के लोगों ने देखाङ्कआकाश को जाने की सीढि यां न जाने कहां गायब हो गई थीं? और उसी दिन से उस सरदार ने बाकी लोगों को अपने अट्ठाीन खटाना शुरू कर दिया था।
कल्पना कीजिए असम के कार्बी आँग्लांग में दिफू या उसके आसपास दूर किसी जंगली इलाके में डेरा डाले एक कार्बी समूहङ्कजो तिब्बत, बर्मा  होते हुएङ्ककई कबीलों से लड तेभिड तेङ्कहारतेजीतते असम के इस अनजान कोने में आ बसा है और शायद वहाँ के राजा के जुल्म के कारण वहाँ से भी पलायन करने की तैयारी कर रहा है। अभी भी यात्राा में ही है वह समूह। वह समूह व्यस्त है मंत्राणा मेंङ्ककहां बसें? कैसे बसें? भयभीत हैङ्कभले छोटा है, कम है संख्या में, पर हौसला नहीं हारा है।
जहाँ शुरूशुरू में आश्रय लिया इस समूह ने, वहाँ का राजा अपनी शेरनी के बच्चों को दूट्ठा पिलाने के लिए कार्बी औरतों के स्तनों से दूट्ठा इकट्ठा करने का शौक पालता है। उनके बच्चे चाहे भूख से मर जाएं या कुपोषण का शिकार हो जाएंङ्कइसकी राजा को कोई चिन्ता नहीं! उसी समूह की एक बहादुर औरत से नहीं सहा गया यह अन्याय! दूट्ठा मांगने आए राजा के दूतों को उसने अपनी टांगी (कुल्हाड.ी) से काट डाला। बस फिर ङ्कया था! राजा का कोप निश्चित था! इसी भय से योजना बना कर पूरा का पूरा कबीला रातोंरात पालयन कर गया वहां से!
सतत्‌ भागता ही रहा है वह समूह! बाढ  से उफनती नदियों में ऊबताडूबता, पीछा कर रहे राजा के सैनिकों को रोकने के लिए पुलदरपुल काटता, पेड ों के अवरोट्ठाक खडे  करता, पेड ों के तनों के सहारे नदियां पार करताङ्कमौत को ट्ठाकेलतापछाडता, निरन्तर भागता रहा है कार्बीसमूह। कहीं स्थाई रूप से बसने की छटपटाहट को अपने कदमों की गति से बांट्ठो, निरन्तर चला ही जा रहा है यह। उसका नेतॐत्व कर रही हैङ्कवही बहादुर औरत, जिसने राजा के दूतों के मार गिराया था। इस औरत की यह वीरगाथा इतिहास ने कहीं दर्ज नहीं कीङ्कपर सदियों के हर पल पर लिखी है यह गाथा। इसे जन्म से मॐत्यु तक हर कार्बी सुनता और सुनाता है। वह उगते सूर्य को देखकर, चन्द्रमा को हंसते देख कर, हवा के हर थेपेड े के साथङ्कलय में बांट्ठाता है इस कथा को। रात में लोरी बनकर हर बच्चे की आंखों में नींद कह जाती है यही कथा।
उसी यायावरी के दिनों में, इसी तरह घूमतेघामतेङ्कदूसरे कबीलों से बचतेबचातेङ्कअल्पमत होते हुए भी बहुसंख्यक कबीलों के साथ रहने की कला सीखने के क्रम में, उस समूह ने सीखी थीङ्क'बोलने की कला।* बोलने का अर्थ है अभिव्यङ्कित की ताकत! तब से कर्बियों के मन में सवाल उठने लगे! जंगलों की मोहक हरियाली, जंगली पशुपक्षियों की दिप्पदिप्प कर झाँकती आँखें, बिदक कर दौड ती गिलहरियां, डरेसहमे, दौड तेभागते हिरन, हाथियों की मस्त होकर दहाड ती टोलियां, एकदम शांत होकर दासोंसी रेंगती नदियां, रंगबिरंगे फूल और अपने घर की औरतों के पैदा होते सद्यजन्मे बच्चेङ्कउनके मानस में सवालों की झड ी लगा देते। उनके मनमस्तिष्क में फिर कौंट्ठा जाता एक यक्ष प्रश्नङ्क
'यह सब कैसे बना, ङ्कयों बना?*
'सुनो मैं सुनाती हूं तुम्हें इस सॐष्टि की उत्पत्तिा और उसके सौन्दर्य व गति की अमर कथा...।* कल्पना सरसरा उठी। हवा फुसफुसाईङ्क
''तुम्हारे पुरखे जो अरनामी (अकाशीशङ्कित) कहलाते थेङ्कने बुलाई सौ अरनामों की सभा। आकाशी शङ्कितसमूह की सभा बैठी। निर्णय हुआङ्क'ट्ठारती बनाई जाय!* उसके लिए शङ्कितसमूह ने चुना बरीथे नामक अरनाम! बरीथे ने खोजी नौ वस्तुएं, कि नापी जा सके लम्बाई और चौड.ाई। उसने मिट्टी बनाईङ्कउसे गूंट्ठाा। गीली मिट्टी को सुखाने का जिम्मा दिया मोन और जोन को। वे गूंट्ठाी हुई मिट्टी को पंखे से सुखाने लगे।
'लो बन गई ठोस भूसे के रंग वाली ट्ठाूलट्ठाूसरित ट्ठारती।* बरीथे चिल्लाया।
बरीथे ने मिट्टी पर रेखाएं खींच दीं। रेखाएं बन गईं नदियां, नाले, घाटियां और पहाड । बन तो गईं कलकल, छलछल करती नदियां, बन गए गगन छूते पहाड ङ्कइसके बावजूद सब ओर सूनासूना ङ्कयों था? बरीथे के मन में सवाल उठा! वह उठाङ्कउसने ट्ठारती पर फूल लगाए, घास उगाई और पेड पौट्ठाों के बीज छींट दिएङ्कट्ठारती हरीभरी हो गई!
''ट्ठारती हरीभरी तो हो गई पर है तो अभी भी सूनी**ङ्कमोनजोन फुसफुसाए।
बरीथे सोच में पड  गया। उसने कल्पना को उलाहना दिया! वह मुस्कुराई! और देखो! हरे पेड पौट्ठाों से ढकी उस ट्ठारती परङ्कचलने लगे भूसे के रंग वालेङ्कहिरन, शेर, हाथी, गेंडा, सुअर, भैंसे! सरसराने लगे सांप, बिच्छू, कीडे मकौड े! मेंढक कूदने लगे और मकडि यां जाल बिनने लगीं! ट्ठारती गतिशील, जीवजंतु जीवन्त। बरीथे लौट आया आकाश में।
उसने आकाश से ट्ठारती को गौर से देखा। ट्ठारती हरीभरी और गतिशील दिखी! उस पर चौपाएदोपाए चलतेफिरते नजर आए! ''अट्ठाूरी ङ्कयों लग रही है ये ट्ठारती?** बरीथे के मन में कोई बोला। उसी दिन जिणासा का जन्म हुआ था शायद।
''कोई सोचने वाला तो है ही नहीं इस ट्ठारती पर! कौन बखानेगा इसका सौन्दर्य? कौन करेगा इसका मानसम्मान?** समझ ने तर्क दिया। दुखी हो गया बरीथे। समझ ने भी शायद उसी दिन अपनी दस्तक दी थी।
फिर से बैठे सौ अरनाम! हुई मंत्राणा! लिया फैसला!
''करेंगे ऐसे जीव का निर्माण जो सोचे भी और सोचा हुआ बोले भीङ्कजो समझे और करे सम्मान और भागीदारी करे दुखसुख में इकदूजे के साथ। ये बनस्पति हरीभरीङ्कये पशुपक्षी, वनचर, गगनचारी चलते और उड.ते तो हैं, पर सोच नहीं सकते।**
सबकी राय बनी और फिर से मिला वरदान बरीथे कोङ्कसम्पूर्ण मनुष्य बनाने का!
उल्लसित बरीथे ने मनुष्य बनाने का दायित्व रंगबीनी और र×बीनी को सौंप दिया। वे दोनों मनुष्यों के पुतले बनाने के कार्य में जुट गईं। पुतले तो बन गए, पर रात भर में जो भी पुतले वे बनातीं, दिन में सब के सब गायब हो जाते और जो दिन में बनातीं वे रात में। पुतलों की खोजबीन शुरू हुई तो पता चला कि उन्हें शैतान 'हीई...ँँँ* घोड ा खा जाता है। पुतलों की रक्षा के लिए बनाया गया तेज  कान और नाक वाला कुत्ताा, जो पुतलों की रक्षा करे!। बरीथे रंगबिरंगी सामाग्री लाया। उसने वह सामग्री रंगबीनी और र×बीनी को सौंप दी। गुरुरूकुरू और गुरु रंगकुरू ने उन्हें मनुष्य बनाने का गुर सिखाया। उन्होंने रंगबीनी और रूबीनी के सहायतार्थ मनुष्य के विभिन्न रूप बनाने की विट्ठिा में पारंगत सौ अरनाम दिए। उन्होंने असंख्य मनुष्यों के पुतले गढ  दिये। मनुष्य बनाने के लिए वांथू और वांथो ने भी सामग्री जुटाई। रूकमार और रंगकमार, चेहोन और बेहोन कुरू भी पुतलों की रक्षा करने लगे। मंसीन और मुंजीन कुरू ने आकर पुतलों में प्राण फूंक दिये। दाककुरू और हाककुरू ने आकाश से उतर, पुतलों के मस्तिष्क पर भाग्य रेखाएं लीक दीं। मनुष्य तो बन गया, पर इतने पुतले बनाने पर भी ट्ठारती खालीखाली ही लगी।
'कैसे भरें ट्ठारती का खालीपन*, यह यक्ष प्रश्न आकाशगंगा की तरह ब्रह्माण्ड में लटका ही रहा?
फिर बैठे अरनाम। इस बीच उन्होंने मनुष्य का सॐजन रोक दिया था। फैसला हुआङ्क
''अब बरीथे मनुष्य नहीं बनाएगा। मनुष्य ही मनुष्य से मिलकर सॐजन करेगा मनुष्य का। अरनाम उन्हें रहनेखाने, पानीभोजन और अन्य सुविट्ठाा जुटाने में सहयोग करेंगे। चूंकि दोनों कुरू पत्नियोंङ्करूबीनी और रंगबीनी ने मिलकर मनुष्य का पुतला गढ.ा था, इसलिए अरनामों ने उन्हें वरदान दिया। फिर से उन्हें मनुष्य बनाने की नई विट्ठिा सिखाई, जिससे रूबीनी को बेटा और रंगबीनी को बेटी पैदा हुई। बेटे का नाम रानाम और बेटी का नाम चेलिरएत रखा गया।
स्त्राीपुरुष के समागम से विश्व में स्त्राीपुरुष का यह जोड ा प्रथम जोड ा था। जब अरनामों को विश्वास हो गया कि स्त्राीपुरुष के समागम से मनुष्य पैदा होंगे, तो उन्होंने मनुष्य में प्रेम का बीज रोपने का जिम्मा साईदेरी को दियाङ्कताकि सभी में प्रेम का संचार हो। साईदेरी विश्व की हर डगर और हर मोड  पर खड ी हो गई। उसने पानसुपारी में भरभर कर मनुष्यों में प्रेम बांटना शुरू कर दिया। फिर भी कुछ प्रेम बचा रह गया। साईदेरी ने बचे हुए प्रेम पर मन्त्रा पढ कर उसे जंगल में फेंक दिया! उस मंत्रा पढ े प्रेम को जीवजन्तु खा गए। उनमें भी जग गया प्यारपे्रमस्नेह। रानाम और चेलिरएत विश्व के प्रथम पतिपत्नी बने और बने विश्व की भावी संतानों के प्रथम मातापिता। अरनामों ने, रूबीनीरंगबीनी द्वारा निर्मित मनुष्यों से कभी न मरने वाली अमरता की शङ्कित वापस ले ली। तभी से मनुष्य मरने लगे हैं।
इस कथा में डार्विन के सिद्घांत और फ्रायड के मनोविश्लेषण जैसा विकास और विणान नज र नहीं आता ङ्कया? इस कथा के हर मोड  पर विकास के सिद्घांत जैसी ही मनुष्य की कल्पना क्षमता में कदम दर कदम तर्कशीलता एवं 'सक्षम* के विकास की प्रक्रिया को आगे बढ ाने की एक चेष्टा नज र आती है। ट्ठार्म से प्रभावित शास्त्राीय मिथकों में तर्कशीलता और विकास की प्रक्रिया प्रायः नगन्य होती है या कहें होती ही नहीं।
ऐसे तो यह कथा कार्बी कबीले की है पर यह कथा किसी भी कबीले की हो सकती है, खास कर किसी भी पहाड.ी आदिवासी कबीले की। समुद्र, नदनदियों व झीलोंसरोवरों वाले क्षेत्रा में सॐष्टिसॐजन की कथायें प्रायः शून्य या प्रलय, जहाँ चारों ओर पानी हो, से ही शुरू होती हैंङ्कआकाश से नहीं। आदिवासी मिथकों व लोककथाओं में सबकुछ घटते हुए नजर आता है, जैसे सबस्वाभाविक ढंग से हो रहा हो। इनमें हैंङ्कआकाश से नहीं। आदिवासी मिथकों व लोककथाओं में सबकुछ घटते हुए नजर आता है, जैसे सबस्वाभाविक ढंग से हो रहा हो। इनमें न तो कहीं चमत्कार होता है और ना ही है आस्था! है तो बस मनुष्य की सोच का विकास, प्रकॐति के अभेद्य, सौंदर्य और सौष्ठव पर मुग्ट्ठाा का सा भावङ्कजो कल्पना का सहारा लेकर विकसित होती है। अन्य ट्ठार्मों के, ख.ास कर हिन्दु ट्ठार्म के शास्त्राीय मिथकों में हर कार्य का फल दंडस्वरूप या वरदान स्वरूप सामने आता है। हिन्दू शास्त्राों में वर्णित सत्यनारायण की कथा में भाग न लेने के चलते एक स्त्राी के पति का जहाज डूब जाता है और उसका पति भी जहाज के साथ ही डूब जाता है। दूसरे ही क्षण उसकी पत्नी जाकर सत्यनारायण की कथा का प्रसाद ले आती हैङ्कतो उसका मॐत पति जीवित हो उठता है। इन कथाओं में अनुष्ठान के पालन पर जोर होता है, जैसे मनुष्य अनुष्ठान के लिए ही बना हो! आदिवासी समाज के अनुष्ठान मनुष्य के लिए बने नज र आते हैं। उनका पालन हर हालत में आदिवासी मानुष करता ही है। पालन न करने से दंड के उदाहरण नहीं हैं। इसे आदिवासी मानस की अनुशासन प्रियता का प्रतीक भी माना जा सकता है।
कई ट्ठाार्मिक मिथकों में पॐथ्वी प्रलय के बाद फिर से उबरी दिखाई जाती है, जिसमें मात्रा एक ही व्यङ्कित जीवित बचता है। उसी व्यङ्कित की संतति से पुनः सॐष्टि बनती है। अन्य सांस्कॐतिक व ट्ठाार्मिक मान्यताओं जैसी ही प्रलय की कल्पना आदिवासी कथाओं में भी है। लेकिन उनकी कथाओं में कोई पुरुष या देवता नाव में या कमल में बैठ कर ट्ठारती का निर्माण नहीं करता या ट्ठारती पर नहीं पहँुचता। उनके यहां मिट्टी से ट्ठारती का निर्माण दर्शाया गया है। उस निर्माण में केचुएं जैसा छोटासा जीव, चिडि.या जैसा छोटासा पक्षी और कछुए जैसा अत्यन्त ट्ठाीमी गति से सरकने वाला जंतु या किसी पक्षी के अंडे भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। चाहे वह बोडो मिथक हों या कार्बी अथवा संताली, मुण्डारी या खडि या, सभी में मनुष्य, यानी स्त्राी और पुरुष मिलकर पॐथ्वी का निर्माण करते हैं। यह जोड ा सभी मिथकों में भाईबहन के रूप में ही पैदा होता है। हिन्दू शास्त्राों में पिता पुत्राी के संभोग से सॐष्टि बनी। अथाह जल की कल्पना वहां भी है। बोडो मिथकों में अथाह जल ब्रह्मपुत्रा के किनारे बसने के कारण आया होगा, तो संताली, मुण्डारी, खडि या जनजातियों में सिंट्ठा में मोहनजोदड ो से बंगाल (पूर्वी बंगाल समेत) सिंट्ठाु, गंगा और दामोदर नदियोंनदों के कारण। उरांव जनजाति मद्रास (अब चेन्नई) से संबंट्ठा रखने के कारण, समुद्र, सरोवर, झीलों तथा बड ेबड े पहाड ी नदनदियों से जुड ी रही है। बाढ , तूफान व समुद्री ज्वारभाटा का भी समुद्र के किनारे बसे कई कबीले मुकाबला करते रहे हैं। इस युग में तो वहाँ सुनामी ने ही प्रलय मचा दिया था।
प्रलय का रूप उनकी कथाओं में भी है। उनकी कथाओं में किसी ब्रह्मा की नाभि से किसी का जन्म नहीं हुआ। उनकी कथाओं में पॐथ्वी मिट्टी से जन्मी है। संताली कथाओं में पिलचू बूढ.ी पॐथ्वी को थाली रखकर गोल भी बनाती है। यह सर्वमान्य तथ्य है कि विश्व के किसी भी शास्त्रा में या ट्ठाार्मिक पुस्तक में पॐथ्वी को गोल नहीं माना गया था। उल्टे पॐथ्वी को गोल सिद्घ करने वाले गेलीलियों को योरोप में इसाइयों के हाथों सजा भुगतनी पड ी। भारत में इसी प्रकार आकाशीय, वैणानिक और गणित अवट्ठाारणाएं उद्घरित करने के लिए ब्राम्हणों ने आर्यभट्ट को भी दंडित किया था। लेकिन संतालों ने पॐथ्वी को प्रागैतिहासिक काल से ही गोल माना।
बोरो लोग भारत में मंगोलिया के रेगिस्तानी इलाके से आए थे। वे अपने साथ कैङ्कटस को भी लेते आये थे, जिसे प्राकान्तर में बाथौ देवता का नाम दिया गया। दरअसल कैङ्कटस का ऊपरी गोल भाग शिवलिंग के समान ही दिखता है। लिंग पूजकों का मनोविणान भी कहीं न कहीं मनुष्य की संतति से जुड ा है। संभवत इसलिये लिंग पूजा भी शुरू हुयी होगी। लिंग आनन्द का सूचक भी है और संतति का भी। आदिवासी कथाओं में ट्ठारती बनाने के पीछे कोई दैवीशङ्कित नहीं बल्कि उभयलिंगी जोड ा होता है, जिसमें ट्ठारती बनाने की इच्छा पनपती है। हालाँकि बाद में दूसरी संस्कॐति के लोगों ने इनके मिथकों पर सॐष्टा का नाम थोप दिया, लेकिन आदिवासी अवट्ठाारणा में सॐष्टा का कोई स्थान नहीं है। उनके पूर्वज ही उनके बोंगा(पूज्य) होते हैं। गैर आदिवासी आबादी ने 'बोंगा* को 'देवता* का नाम दे दिया। यह भाषाई वर्चस्व के कारण हुआ। इनके यहां 'बोंगा* और मनुष्य का रिश्ता 'आजा* और 'नाती* यानी 'नाना* और नाती जैसा होता है। यह पूर्वजों की ही पूजा करते हैं। इनमें दादा के नाम पर पोते का और दादी का नाम पर पोती का नामकरण करने की प्रथा भी प्रचलित है।
केंचुए को मिट्टी लाने और बनाने के आग्रह पर ही यदि विचार किया जाये, तो यह प्रक्रिया अत्यन्त ही तर्कसंगत लगती है। केचुआ तो स्वयं ही मिट्टी बन जाता है। आज आप उससे ही आर्गेनिक खाद बनाते हैं। आस्ट्रिक जनजातियों की संस्कॐति हो या तिब्बत, मंगोल व वर्मा से होकर गई बोडो, नागा या मैतेई व पैते जैसी जनजातियों की, वे सभी उत्पादन की प्रक्रिया के लिए मिट्टी को ही महत्व देती हैं। मिट्टीङ्कजिससे ट्ठारती बनीङ्कका स्रोत, वे केंचुए को मानती हैं। कोई इसे माने या न माने या इसे दूर की कौड.ी बिठाने का तर्क कहेङ्कलेकिन बात तर्कसंगत और तारतम्यक है। यहां मिट्टी का महत्व उत्पादन से जुड ा है और जुड ा है मनुष्य के अस्तित्व सेङ्कजो भोजन के बिना संभव नहीं और भोजन मिट्टी से जुड े बिना असम्भव है। इस प्रकार मिट्टी भोजन का आट्ठाार है, अर्थात मनुष्य के अस्तित्व का आट्ठाार भोजन है, जो मिट्टी से जुड ा है।
ज रा हम बोडो कबीले के दूसरे हिस्से में चलें, जहां बादल और बिजली को भाईबहन माना जाता है। यह मिथक इस प्रकार है।
मातापिता और दादादादी दोनों मिलकर बादल और बिजलीङ्कजो दोनों भाईबहन हैं के ब्याह करवाने का फैसला लेते हैं, लेकिन बहन को यह रिश्ता मंजूर नहीं। वह आंगन में 'चोथांग* का पेड. रोपती है, जो आकाश को भी पार कर जाता है। 'चोथांग* कोकबोरोक भाषा का शद्ब है। यह भाषा त्रिापुरा में बोली जाती है। त्रिापुरा में बोरो जाति बोरोक नाम से जानी जाती है, इसलिए यह कथा बोरो जनजाति में भी व्याप्त है। बिजली शादी से बचने की खातिरङ्कभाग कर उस पेड  पर चढ  जाती है और दनादन आकाश की सीढि याँ चढ ने लगती है। बादल गरजता, ललकारता, हुंकारता, उसके पीछे भागता है। बहन की कमर में बंट्ठाी 'पौचाई* यानी लुंगी, भागने की प्रक्रिया में उसके नितम्बों से खिसक जाती है। इस बोडो मिथक के अनुसार वे नंगे चमकते नितम्ब ही आकाश में आज भी बिजली बनकर कौंट्ठाते हैं और गरजतालरजता भाई बादल बनकर अपनी बहन बिजली के पीछे सतत्‌्‌ भागता है। उसकी वही दहाड  बादल की गरज बन गई है। असम से लेकर त्रिापुरा तक यह कथा दोहराई जाती है। यह मानव के रिश्ते बनने की प्रक्रिया के दौर को दर्शाता मिथक है। बहनभाई के रिश्ते में विवाह पर जब रोक लगी होगी या किसी बहन ने भाई से विवाह करने से इंकार किया होगा, संभवतः समाज के उस दौर के अनुभवों को आदिवासियों ने बादल और बिजली के चरित्राों में बदलकर, एक जीवंत कथा गढ  दी और बड े ही सहज ढंग से बता दिया कि बहनभाई का विवाह वर्जित हैङ्कस्वीकार्य नहीं है।
पूर्वात्तार के सभी राज्यों में सूरज को स्त्राी माना जाता है और चन्द्रमा को पुरुष। एक दिन चन्द्रमा की नियत अपनी बहन सूर्य के प्रति बिगड. गई। वह उस पर आसङ्कत हो गया, तो सूर्य उसे मारने दौड ी। भयभीत होकर चन्द्रमा पेड  की आड  में छिप गया। तब से चन्द्रमा के छिपने की अवट्ठिा को अमावस कहा जाने लगा। यही है चन्द्रमा के महीने में पन्द्रह दिन गायब रहने के भेद की व्याख्या! आदिम आदिवासी समाज की सद्य जन्मी उर्वर कल्पना की उड ान है यह! कितनी सहजता से आदिम मन की कल्पना ने कर दी व्याख्या! कहीं कोई चमत्कार नहींङ्कबस है तो विश्लेषण एक वर्जना का! यानी बहन पर कामुक दॐष्टि रखना गलत है! कल्पना की उड ान इतनी उ×ंची कि समाज की अचार संहिता को आदिममानस ने ब्रम्हाण्डीय चरित्राों से जोड  दिया! है न कितना अद्‌भुत मनुष्य और सॐष्टि का समायोजन! एक भौगोलिक तथ्य को आदिवासी मन की कल्पना ने मनुष्य की कमज ोरी से जोड कर जीवन्त रूपक खड ा कर दिया।  यह कथा अरुणाचल प्रदेश में प्रसिद्घ है। संभवतः जब समाज ने भाईबहन के रिश्तों की नई संहिता तय की होगी, तो वर्जना को स्वीकार्य बनाने के लिए प्रकॐति के दो मुख्य चरित्राों यानी सूर्य और चन्द्रमा का आलम्बन लिया होगा उस आदिवासी मानस ने।
यह मिथक इस तथ्य की पुष्टि भी करता है कि पहले समाज में रिश्ते नहीं थे। मनुष्यमनुष्य में यौन रिश्ता प्रतिबन्ट्ठिात नहीं था। मुङ्कत थे वे रिश्तों के बन्ट्ठान से। आदिवासी मिथक मनुष्य के रिश्तों, मनुष्य की भाषा, मनुष्य के ट्ठवनिउच्चारण व बोली के निर्माण और उसकी बसाहटों, यात्रााओं और विकास के साथसाथ उसके विस्थापन और पुर्नवास की कथा भी कहते हैं। वे दंड या वरदान देकर समाज को भयभीत या तुष्ट नही करते। वे तथ्यात्मकता और घटनाक्रम को तार्किक निष्कर्ष देकर समाज के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। ये बुरी स्पिरिट्‌स की संतुष्टि उपहारों या जीवजंतुओं की बलि देकर करते हैं।
इनकी प्रेमकथाएं और मिथक अद्‌भुत हैं। खासी जनजाति की 'रायताँग* हो या 'पेड.की* अथवा मिजोरम की 'ट्‌वेलवुंगी* की कथाएं प्रेम की उ×ंचाइयों को छूती हैं। इनकी प्रेमकथा में मनुष्य या पशुपक्षी के प्रेम में भेदभाव नहीं है। दोनों की प्रेमकथाएं समान भाव और प्रेम से कही, सुनाई व सुनी जाती हैं। दोनों के श्रोता प्रेम की गहनता और सच्चाई से रिश्ता जोड ते हैङ्क्त पात्रा पशुपक्षी हो, या मनुष्यङ्क्त  वह मनुष्य मात्रा के मन को समान रूप से उद्वेलित करता है।
माणिकरायताँग की कथा में एक 'सिएम* यानि चुने हुए सरदार की रानी, उसके परदेस जाने के बाद, एक रात दूर से आती बांसुरी की तान सुनकर अनायास उसकी तरफ खिंची चली जाती है और पहुंच जाती है महल के बाहर एक टूटीफूटी झोपड ी के पास, जिसमें बैठा एक फटेहाल युवक बांसुरी बजा रहा था।
 यह सिलसिला हर रोज  रात को चलता रहा। रानी हर रोज  बांसुरी की ट्ठाुन सुनते ही महल छोड कर उस फटेहाल युवक से मिलने चली आती। आखिर एक दिन रानी ने  उस युवक के प्रति अपना प्रेम व्यङ्कत  कर ही दिया। फलतः पैदा हुआ एक पुत्रा।
कुछ वर्षों बाद 'सिएम* अपने राज्य में वापस लौट आया। सच्चाई जानकर वह दुःखी हुआ। उसने रानी के प्रेमी की खोज शुरू कर दी। 'सिएम* के आदेशानुसार  दरबार लगा, जिसमें सभी आगन्तुकों को बच्चे को उपहार में केला देकर आगे बढ ना था। लोग केला लेकर जुटे, पर बच्चे ने किसी से भी केला स्वीकार नहीं किया।
''कौन छूट गया है प्रजा में, जिसकी इंतजार यह बच्चा कर रहा है?** सिएम गरजा। फिर से खोज शुरू हुई। प्यादे दौड े! सिपाही एक फटेहाल युवक को पकड कर ले आये! आश्चर्य! बच्चे ने आगे बढ कर भिखारी जैसे उस युवक से केला ले लिया! दरबार में सन्नाटा छा गया! 'सिएम* हतप्रभ! दरबार विमूढ  इस बेमेल प्रेमप्रसंग से। प्रजा चकित होकर भिखारी को देखने लगी। प्रजा के मन में एक ही प्रश्न बारबार दोहराने लगाङ्क''रानी ने इस भिखारी से प्रेम कियाङ्कङ्कयों?**
राजकीय शासन व्यवस्था ने रानी के इस प्रेमप्रसंग से ख फा होकर उस युवक को जिन्दा जलाए जाने की घोषणा कर दी। रानी को कमरे में बंद कर दिया गया।
महल के बाहर चिता जला दी गई। एक अति सुन्दर युवक, भव्य पोषाक में बांसुरी बजाता हुआ चिता की तरफ बढ.ा आ रहा था। जनता हतप्रभ! कौन है यह सुन्दर युवक? एक प्रश्न पहले फुसफुसाहट बना, बाद में नाद बनकर चिता को घेरने लगा!
''ङ्कया यह वही फटेहाल युवक है?** प्रश्न उठा।
उफ कितना सुन्दर! कितना शालीन! प्रजा मुग्ट्ठा हो गई उस युवक पर!
उट्ठार रानी विचलित, पर मन सक्रिय! वह अकेले सजा भोगने नहीं देगी अपने प्रिय को! उसने बिल्ली के पांव में अपनी पाजेब बांट्ठा दी और छोड  दिया बिल्ली को अपने कमरे में, ताकि सुनता रहे 'सिएम* पायल की छमछम और आश्वत रहे की रानी कमरे में ही बंद है! रानी खिड की से फलाँग कर चिता की ओर दौड  पड ी!
चिता जल रही थी....पूरा जनजातीय समाज प्रशासन के राजकीय न्याय के विपरीत.... सच्चे प्रेम की सराहना कर रहा था और जारजार रो रहा था। भूल गया था जनमानस कि यह सजा रानी के भटकाव का परिणाम थी। युवक लम्बे डग भरता बढ ा आ रहा था... और देखते ही देखते वह चढ  गया था चिता पर।
और रानी? भीड  में सरसराहट हुई! ...कि एकाएक रानी दौड ती हुई आई और चिता पर कूद गयी! जल मरे दोनों प्रेमी। युवक ने चिता पर चढ ते समय अपनी बांसुरी ट्ठारती पर फेंक दी।
प्रजा, राजा के आदेश के खिलाफ कुछ नहीं कर सकीङ्कपर उसने अपनी संवेदना से भरपूर समर्थन देकर, रानी के प्रेम को निष्कलंक करार कर दिया! जुड  गए प्रजा के हाथ उस महान प्रेमउत्सर्ग के समक्ष।
पूरे खासी समाज ने उस प्रेम की भावना से अपना रिश्ता जोड. लिया! दर्द और संवेदना का यह रिश्ता इतना मजबूत हो उठा कि आज भी हर बरस खासी समाज उस प्रेमीयुगल की स्मॐति में उस चितास्थल पर मेला लगाता है। कहते हैं कि युवक ने जिस बांसुरी को चिता से ट्ठारती पर फेंका था, वहाँ वह बाँस बनकर उग आयी है!
इस प्रेम को ङ्कया कहेगें आप? कहां है इसमें पाप या भटकाव? आदिवासी मानस में प्रेम की अद्‌भुत नदी वास करती हैङ्कजो कभी कलुषित नहीं होती।
ठीक वैसी ही मार्मिक कथा है नन्हीं 'पेड की* की! पेड की एक पक्षी है। उसकी अपनी एक नस्ल है, जैसी पशुपक्षियों की हुआ करती है। उसका प्रेमी 'पेड की* की नस्ल का नहीं था, लेकिन 'पेड की* को उससे प्रेम हो गया था। वह भी 'पेड की* पर जान निछावर करने को तत्पर था। दोनों सवेरे उड ने को निकल जाते, आकाश नापकर गीत गाते लौट आते! कभी प्रेम के, कभी प्रकॐति के, कभी ट्ठारती के, कभी गगन के गीतङ्कसंगसंग गाते। भले दोनों के तरानों की ट्ठवनि अलग होतीङ्कपर सुर एक ही थाङ्कप्रेम, प्यार, नेह! लय एक ही थीङ्कलगाव! 'पेड की* के पिता को मालूम हुआ। उसने एक शर्त रख दी 'पेड की* के समक्ष।
''अगर वह कल मिलने आ गया तो मैं तुम्हारा ब्याह उससे करवा दूंगा, नहीं तो तुम्हें उसे भूल जाना होगा।**
'पेड की* आश्वस्त थी उसका 'पंछी* जरूर आयेगा। पंछी नहीं आया। उसे तो 'पेड की* के पिता ने राह में ही मरवा दिया था। दूसरी नस्ल का पंछी उसकी बेटी को ले जाए यह पिता को गवारा नहीं था। 'पेड की* उसका इंतजार करतेकरते रोती रही और उसके गम में रोतेरोते, चिहुंकना भूल गई। आखिर एक दिन पेड की मर गई।  पेड की की मॐत्यु से दुखित पूरे का पूरा पेड की समूह रोने लगा।
रोतेरोते पेड.कियों की नस्ल चहकना भूल गयी  और गुटरगूंगुटरगूं करने लगी। खासी मान्यता के अनुसार यही है 'पेड की* के न चहकने का रहस्य और गुटरगूं करने का कारण। यह है आदिवासी मन और उसकी कल्पना, जो पंछियों का मन भी पढ ती है और पक्षी और मनुष्य के प्रेम को एक ही स्तर परङ्कएकसी उँ×चाई पर खड ा कर देती है। 'पेड की* प्रेम का प्रतीक बनकर हमारे मन को छूू जाती है और 'पेड कियों* का समूह जनमानस बनकर। यही है व्यष्टि का समिष्टि से तादात्कार। ये कथाएं उनके पूरे समाज की व्यङ्कित के प्रति सामूहिक संवेदना का प्रतीक हैं।
आदिवासियों के ये मिथक, ये कथाएं, चाहे वे सॐष्टिसॐजन की हों या अन्य, सभी में प्रश्नों के साथसाथ उनके उत्तार भी मौजूद हैं; साथ ही मौजूद है सॐष्टि और प्रकॐति के प्रत्येक अंग और पक्ष की व्याख्या। ये कथाएं मनुष्य की जिणासा की प्रतीक हैं। मनुष्य में जिणासा जगी कि प्रश्न उठ खड े हुए और उत्तार की खोज में निकल पड ा आदिवासी मानुष! उत्तार की खोज में ही देखे उसने सपने। सपनों ने दिये उसे रंग। कल्पना ने दिये उसे पंख और पंखों ने दी उड ान। लेकिन पंखों की उड ान ट्ठारती की गुरुत्वाकर्षण की शङ्कित से नियंत्रिात हो थामे रही उसकी कल्पना की डोर! ट्ठारती से जुड े रहने और आकाश को छू आने की इन इच्छाओं ने कहीं रचीं ये कथाएं या गढ े ये मिथकङ्कअपने उद्‌्‌गम के, अपनी उत्पत्तिा के, अपने प्रेम के।

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