मंगलवार, 22 जून 2010

स्त्री-मुक्ति विमर्श से अनजान पर स्वालम्बी सर्वहारा स्त्रियां

बहिष्कृत, निम्नजातीय सर्वहारा, स्वालम्बी व इज्जत के छद्म मिथक तथा मनुवादी वर्जनाओं से मुक्त स्त्रियां, स्त्री-मुक्ति  विमर्श से तो परिचित नहीं होतीं, किंतु वे स्वावलम्बी होती हैं। समाज से बहिष्कृत यह तबका निम्न समझा जाता है और कठिन श्रम करता है। औरतों के प्रति इनके अपने सामाजिक नियम भारत की शेष उच्चवर्णीय आबादी की तरह कठोर व जड. नहीं होते। वे ढीले व व्यवहारिक होते हैं और औरतों के प्रति संवेदनशील भी। इस तबके की औरतें खेतोंखलिहानों, कारखानोंखदानों, रोड, भवन, बांट्ठा आदि में श्रम बेच कर जीविका चलाती हैं। वे अपनी कमाई से परिवार का पोषण करने में बराबर की भागीदारी करती हैं। देह से वे पारिवारिक व अपने समाज की वर्जनाओंतर्जनाओं के कारण उतनी गुलाम नहीं होतीं, जितनी अन्य मध्यवर्गीय औरतें या गॐहणियां होती हैं।

इस वर्ग की औरतें पति से न पटने पर उसे नकार सकती हैं, छोड सकती हैं और अपना अलग घर बसा सकती हैं या अपनी शर्तों पर दूसरे मर्द के यहां बैठ सकती हैं। अपनी मर्जी से ब्याह कर सकती हैं। पति की हिंसा सहती हैं पर वे उलट कर जवाब भी दे लेती हैं। वे प्रतिरोध करती हैंङ्कबिना यह जाने की यह स्त्राीमुक्ति का नारा है।
 
झूठी इज्जत का मिथ न तो उन्हें पति बदलने से रोकता है और ना ही दूसरा पति करने से । बच्चों का मोह भी उन्हें घर या परिवार से बांधकर नहीं रखता। इन वर्गों की औरतें अपने बच्चों के साथ दूसरे मर्द के यहां बैठती हैं, जिन्हें पालने का दायित्व दूसरे मर्द का होता है। इसे ऐसा भी कह सकते हैं कि दूसरा मर्द औरत को उसके बच्चों के साथ स्वीकारता है, उसे दागी या अपवित्रा नहीं मानता। ये खुद कमाती हैं, इसलिए इन्हें यह चिन्ता नहीं सताती कि मर्द के छोड. देने पर कैसे गुजर होगी या ये कहाँ जायेगी? वे सौंदर्य की कसौटी पर खुद को नहीं कसतीं बल्कि श्रम की कसौटी पर अपनी देह को परखती हैं। प्रयास करने पर या जरूरत होने पर वे संगठित भी होती हैं। इनकी मुख्य समस्या गरीबी, भूख और जाति है। समाज में वे लिंग और जाति के कारण दोयम नम्बर पर हैंङ्कइसका अहसास इन्हें है, पर यह उतना तीव्र नहीं है कि वे व्रिदोह पर उतारू हो जाएं। औंरतों को मिलने वाले दुःख व अन्याय तथा जुल्म को ये 'भाग्य का फल* या 'गरीबी का परिणाम* मान कर सहती हैं।

ऐसी औरतों का दबंगों या सवर्णो द्वारा जबरन दैहिक शोषण किया जाना आम बात होती है। इन स्त्रिायों का अपनी कोख पर इस जबरदस्ती के चलते अधिकार नहीं होता। इस मायने में इनके संदर्भ में देह की स्वतन्त्राता बेमानी हो जाती है। इसके बावजूद उनमें जुल्म की समझ होती है, भले स्त्राीमुङ्कित की किसी भी स्तर की अवधारणा की समझ उनमें न हो। जुल्म या जबरदस्ती का अहसास होने पर वे अवसर मिलते ही प्रतिकार करने पर आमादा हो जाती हैं।

इस वर्ग की औरतें बलात्कॐत या प्रताडि त होने पर अपराधबोट्ठा या शुचितग्रन्थि से ग्रसित नहीं होतीं, ना ही वे मनमसोस कर घर में बैठ जाती हैं। वे जुल्म का प्रतिरोध करते हुए खटनेकमाने के लिए भी निकल जाती हैं। उनका परिवार और पति बलात्कॐत औरत को नकारता नहीं बल्कि उसके साथ मिलकर जुल्म के खिलाफ संघर्ष करता है।

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