बुधवार, 30 जून 2010

पिछले लेख का शेष भाग.........

स्त्रियाँ


स्वावलम्बी कामकाजी स्त्रियाँ जो हीनभावना के कारण मुक्त नहीं हो पाती।


इस श्रेणी में वे मध्यमवर्गीय कामकाजी स्त्रियाँ आती हैं, जो कामकाजी होने के कारण स्वावलम्बी होती हैं। वे मुङ्कित की इच्छा और अस्मिता का अहसास भी उन्हें कचोटता है। वे अपना आत्मसम्मान निर्मित कर चुकी होती हैं चूंकि वे परिवार का दायरा तोड.कर कामकाजी महिलाएं बनी होती हैं। इसलिए वे छोटेमोटे निर्णय लेने की क्षमता भी हासिल कर लेती हैं। परिवार की अतिरिक्त  आमदनी का जरिया बन जाने के चलते, वे परिवार में विशेष रुतबा  भी पा जाती हैं। बावजूद इसके वे परिवार सम्बन्धी या खुद अपने या अपनी सन्तान के लिए बड़े  निर्णय लेने से घबराती या कतराती रहती हैं। दरअसल ये स्त्रिायां एक तरफ अपने धर्म व सांस्कृतिक  सामाजिक दवाब के कारण, तो दूसरी तरफ औरत होने की अपनी हीनग्रन्थि से इतनी त्रस्त होती हैं कि उनमें आत्मविश्वास की कमी पनप जाती है। वे सामाजिक वर्जनाओं व सामाजिक निंदाओं से त्रस्त और भयभीत ही नहीं रहतीं बल्कि वे धार्मिक अन्धविश्वासों, पापबोध और अपराधबोध की ग्रंथियों की भी शिकार होती हैं। ऐसी महिलाएं अधिकतर कुंठित रहती हैं। कभीकभार तो किन्हीं किन्हीं के इतर सम्बन्ध  भी पर्दे के पीछे चलते रहते हैं, जिसके चलते प्रेमियों व सहकर्मियों द्वारा उनका गुहादोहन भी होता रहता है। ऐसी स्त्रियाँ पति की भी चुपचाप मार खाती रहती हैं। वे प्रायः मनोरोगों का शिकार भी हो जाती हैं। मैंने कई उच्च पदों पर आसीन स्त्रियाँ को पति की हिंसा का शिकार होते देखा हैं। इसके बावजूद वे पति के विरूद्घ कोई प्रतिरोध दर्ज नहीं करतीं या कराती इसलिए कि वे  खुद  को अपराधी  मानती है।
कार्यस्थल से घर पहुँचने में देरी होने पर पति और पारिवार की शंका का विष उन्हें प्रतिदिन पीना पढ़ता है और समाज की उंगलियां भी झेलनी पढ़ती हैं, फिर भी वे विद्रोह नहीं कर पातीं। अति होने पर वे आत्महत्या तक कर लेती हैं या फिर घर से भाग जाती हैं, किंतु अधिकांश उस नर्क को भोगती रहती हैं।  संगठन बनने से अपने कोटर से बाहर निकल सकती हैं। ऐसी स्त्रिायां प्रायः आत्मदया व अपराधबोध की ग्रन्थि को भी ताउम्र पोसती और जीती रहती हैं।

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