(शक्तिप्रसंग,मनोज कुमार)
भारत में कबीर जैसे जातितोड़क, व्यवस्थाविरोधी, क्रान्तिकारी कवि भी स्त्री के प्रति कटु हैं। वे तो स्त्री की तुलना 'नरककुण्ड' से करते हैं। दरअसल खुद को स्त्री के आकर्षण से मुक्त करने में अक्षम होने के कारण हर पुरुष स्त्री पर ही सारा दोष मढ़ कर, खुद को सुरखरू माने लगता है. कबीर भी ऐसे ही अंदाज में ही कुछ करते हैं । आज भी तो यही हो रहा है। पुरुष बलात्कार करते हैं, युवा लडकियों से छेडखानी करते पकडे जाते हैं. वे युवा लडकियों की ड्रेस, पहनावे केशविन्यास या हावभाव पर ही दोष मढ कर खुद को निर्दोष साबित करने लगते हैं। उनका आरोप होता हैं की लडकियां ऐसे उत्तोजित करने वाले कपड़े पहनती हैं, इसलिए हम उत्तोजित हो जाते हैं. "इसमें हमारा क्या दोष?"
यदि हम पूरे विश्व की सभ्याताओं को खंगालें, तो इक्का दुक्का अपवाद छोड कर विश्व में स्त्रियों के प्रति अपने काले इरादों से लैस कतार में लगी अनेकों सभ्यताएं ही नज़र आती हैं।
इन सारी सभ्याताओं में एक इजिप्ट ही ऐसा देश है, जहां औरत को ऊँचा दर्जा दिया गया था। वहाँ प्रेमविवाह को भी स्वीकृति मिली हुई है । बाकी सब सभ्यताएं तो औरत की इच्छाओं को निरर्थक ही मानती रही हैं।
हाँ, कतिपय आदिवासी समाजों में प्रेम विवाह, शादी से पहले यौन सम्बंध या सन्तान उत्पति को अवैध नहीं माना जाता। वहाँ स्त्री पुरुष सम्मिलन हेतु 'घोटुल' व्यवस्था भी थी । मिजोराम के कई कबीलों में लडके को शादी के पहले अपनी योग्यता व सामर्थ्य सिद्घ करने के लिए मातापिता के साथ सोई लडकी को सहवास करने के लिए चुपचाप बुलाकर ले आना होता है। यदि वह ऐसा करने में सफल नहीं हो पाता, तो उस लडकी की शादी उस लडके से नहीं की जाती।
नेपोलियन ने सिपाही पैदा करना स्त्री का धर्म बताया था।
वाम आन्दोलन तक ने भी रूस में औरतों को ज्यादा बच्चे पैदा करने की सलाह और हिदायत दी थी कि देश में उत्पादन बढे ! मानो कि औरत बच्चा पैदा करने की मशीन हो! माना कि यह हिदायत देश के हित में थी पर औरत का पक्ष?
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