हम हजार फूल खिलने ङ्कयों नहीं देते! २०.५.१०
रमणिका गुप्ता
आदिवासी भाषाओं की प्रवॐत्तिा लोकतांत्रिाक, समतामूलक, स्वातंत्राताप्रिय और भाईचारा या बहनापे से युङ्कत है। ये भाषाएं किसी को श्रेष्ठ या नीचा नहीं दर्शातीं। इनके प्राकॐतिक न्याय और सामाजिक न्याय की भावना भरपूर मात्राा में भरी है और सबको अपनी बात कहने का अट्ठिाकार भी समाहित है। उनकी भाषा में निजि संपत्तिा जुटाना, जमाख.ोरी करना, ठगना या छद्म आदि के आयाम नहीं हैं। अंग्रेजी में साम्राज्यवादी रुझान का होना अंग्रेजों के उपनिवेशवादी चरित्रा और राजतंत्रापरक व्यवस्था का नतीजा है। विडम्बना तो यह है कि हिन्दी जैसी आम आदमी की भाषा या भारत की अन्य क्षेत्राीय भाषाएं भी वर्चस्ववाद, श्रेष्ठतावाद, सम्राज्यवाद और कट्टरतावाद फैलाने वाली रही हैं। उनमें अंधविश्वास और चमत्कार की बू भी आती है। हमारी ये भाषाएं प्रायः स्त्राीविरोधी शद्बों से भरी पड ी हैं। दुनिया की सभी गालियां स्त्राी को लेकर हैं। यह भारत की ब्राह्मणवादीमनुवादी श्रेष्ठता आधारित सामन्ती संस्कॐति के प्रभाव के चलते ही है। भारतीय संस्कॐति की आस्थाएं चमत्कारयुङ्कत हैं। लेकिन प्रकॐति में कहीं कोई चमत्कार नहीं होता, सौंदर्य या विचित्राता होती है। आदिवासी आस्थाएं प्रकॐति की वास्तविकताओं के गिर्द घूमती हैं। उसमें कल्पना तो है पर चमत्कार नहीं। उनके मिथकों में, उनका आकाश कहीं पिता है, तो कहीं प्रेमी भी। उनकी धरती कहीं मां है और कहीं प्रेमिका! सूर्य और चंद्रमाङ्कधरती और आकाश के बच्चे हैं।
सांताली भाषा तो और भी अद्भुत है। उसमें क्रिया से ही पता लग जाता है कि वह पशु, पक्षी, मनुष्य या जड.वस्तु है। पक्षी के लिए 'ऑप*, मनुष्य हेतु 'दुड घप*, पशु हेतु 'बुरूम* और सरीसॐप के लिए 'पिटी* क्रिया प्रयुङ्कत होती है। हिन्दी में 'यह* और अंग्रेजी में 'दि* निर्जीवसजीव दोनों के लिए प्रयुङ्कत होता है, लेकिन संताली में निर्जीव और सजीव का भी अंतर किया जाता है। वहां निर्जीव हेतु 'नोआ*, सजीव हेतु 'नोई* प्रयुङ्कत होता है। इस प्रकार भाषाई स्तर पर पूरी सोच का अंतर है। ऐसे हमारी मुख्यधारा की भाषाएं कहीं दलित बन जाती हैं तो कहीं सवर्ण, कहीं सर्वहारा हैं तो कहीं कारपोरेट जगत की उद्घोषक, चूंकि ये भाषाएं वर्चस्ववादी प्रवॐत्तिा की पोषक हैं और उपनिवेशवाद का हथियार भी हैं। अंग्रेजी विदेशी उपनिवेशवाद का हथियार थी तो हिन्दी या क्षेत्राीय भाषाएं आदिवासी क्षेत्राों के आन्तरिक उपनिवेशवाद का औजार हैं। इसलिए उनमें शासन सत्ताा की गन्ध भरी हैङ्कभाईचारे की महक कम है। अंग्रेजों ने अपनी भाषा हम पर थोपी और हम अपनी भाषाएं आदिवासियों पर थोप रहे हैं लेकिन आदिवासी अपनी भाषाएं थोपते नहीं। वे मूलतः लोकतांत्रिाक हैं। हम हजार फूल खिलने ङ्कयों नहीं देते? भाषाविमर्श के मूल में यही प्रश्न महत्वपूर्ण हैङ्कजो जवाब खोजता है।
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भाषाएं मरती नहीं, मार दी जाती हैं २१.०५.२०१० रमणिका गुप्ता
भाषा निस्संदेह संप्रेषण का एक जोरदार माध्यम है किन्तु यह संप्रेषण केवल संवाद ही नहीं होता बल्कि विचारों का वाहक भी होता है। ये विचार उन भाषाभाषियों के समग्र लोक, सामाजिक, सांस्कॐतिक, रीतिरिवाज., स्थानीय विशिष्टताओं और उनकी बहुरंगी आभाओं एवं गतिविधियों को भी पूर्णतया प्रतिबिम्बित करते हैं। दूसरी ओर भाषाई संकीर्णता की वजह से कई छद्म अस्मिताएं परस्पर टकराने भी लगती हैं, जिससे समाज के विकास में गतिरोध उत्पन्न होता है। भाषा के आधार पर राज्यों से लेकर राष्ट्रों का विवाद और बंटवारा इतिहास में दर्ज है।
राज्यशङ्कित, जनसंख्या या उपयोगिता जहां किसी भाषा को पुष्ट करती हैं, वहीं वह उसकी वर्चस्वादी प्रवॐत्तिा को भी हवा देती है। इससे भाषा का विस्तार तो होता है किन्तु इसी प्रवॐत्तिा के कारण कई अन्य भाषाओं का स्वाभाविक विकास भी रुक जाता है। आज गलत नीतियों, मुख्य भाषाओं की वर्चस्ववादी प्रवॐत्तिायों तथा अपनी मातॐभाषा के अनुपयोगी हो जाने के कारण, उसे त्यागने की प्रवॐत्तिा बढ रही है और कई भाषाएं लुप्त होने के कगार पर पहुँच गई हैं या लुप्त हो रही हैं, खासकर आदिवासी या अपरिगणित भाषाएं। भाषा के लुप्त होने का मतलब होता है उस भाषाभाषी समाज की संस्कॐति, रीतिरिवाज , कर्मकाण्ड और अस्मिता एवं अस्तित्व का नष्ट होना!
अभी हाल में पिछले दिनों २६ जनवरी २०१० में अंडमान की 'बो* भाषा बोलने वाली बोआ नामक ८५ वर्षीय अंतिम महिला की मॐत्यु हो गयी। आज अंडमाननिकोबार में १० भाषाएं लुप्त होने की कगार पर हैं। ऐसे समय बोआ की मॐत्यु केवल 'बोआ* की मॐत्यु नहीं, ना ही ये केवल 'बो* भाषा की समाप्ति है, बल्कि ये पिछले ६५ हजार वर्षों की मानव सभ्यता की भाषिक धरोहर और जीवनशैली और एक आदिम संस्कॐति की समाप्ति है। न जाने कितनी भाषाएं हर रोज लुप्त हो रही हैं। उनका न कोई मातम मनानेवाला है और न गानेवाला। बाबुई और अर्जुन जाना ने इस ८५ वर्षीय बोआ (अंडमानी महिला) की मॐत्यु पर कविता की निम्न पंङ्कितयां लिखी हैंङ्क
''ङ्कया हुआ अगर भाषा खत्म हो गयी
वह अपने झूठ और सच के साथ दफन हो गयी
शद्ब नहीं रहे, दुनिया की खातिर
कहीं कोई नहीं रोया।**
कहावत है चार कोस पर बोली बदले, आठ कोस पर पानी। विनाश और सॐजन चलता रहता है, भाषा रूप बदलती है, तो विकास होता है लेकिन भाषा लुप्त होती है, तो उस भाषा के बोलने वालों, सरकार और समाज सबकी उपेक्षा नज.र आती है। लगता है भाषा मरी नहीं मार दी गयी।
पिछले दिनों गुजरात के बड ोदरा में आदिवासी भाषाओं पर 'भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर* द्वारा एक वॐहत् सम्मेलन का आयोजन हुआ था, जिसमें मैंने भी शिरकत की थी। उस आयोजन से जारी एक परिपत्रा के अनुसारङ्क''दुनिया के १६ फीसदी आबादी वाले हमारे देश में १९६१ की गणना अभिलेख के आधार पर कुल १६५२ मातॐभाषाएं हैं, जिनमें १०३ विदेशी मातॐभाषाएं हैं। एक अनुमान के अनुसार वर्तमान में दुनिया भर में बोली जानेवाली लगभग ८००० भाषाओं में लगभग ९० फीसदी भाषाएं सन् २०५० तक विलुप्त होने की कगार पर होंगी।**
उसी भाषाकुंभ में यह भी उजागर हुआ कि केवल कम बोली जानेवाली भाषाओं की संख्या ही दिन प्रतिदिन नहीं घट रही बल्कि हिन्दी जैसी अधिक बोली जानेवाली भाषाओं की भी यही स्थिति है। ''इसी का परिणाम है कि कभी बिल्कुल न समझी जाने वाली अंग्रेजी भाषा, अब हमारे देश में सबसे अधिक प्रयोग की जाने वाली ३५ भाषाओं में शामिल हो गयी है।**
आदिवासी भाषाओं की तो और भी बुरी स्थिति है। चूंकि वे न तो पाठ्यक्रम में शामिल हैं और न ही आदिवासी बच्चों की पढ ाई उनकी मातॐभाषा में करायी जाती है। फलतः स्कूलों में आदिवासी ड्रॉपआउट बच्चों की संख्या अधिक होती हैङ्कजिसके चलते वे शिक्षा से वंचित रह जाते हैं।
चूंकि आदिवासी भाषाएं रोजगार उपलब्ध नहीं करातीं, इसलिए उनके बोलने वाले हीनभावना से ग्रस्त हो जाते हैं। वे अपनी भाषा बोलने में शर्म महसूस करने लगते हैं और उसे त्याग देते हैं।
भारी संख्या में विस्थापन के कारण या रोजगार की खोज में आदिवासी दूसरे प्रदेशों में पलायन कर जाते हैं। रोजगार की जरूरत और क्षेत्राीय लोगों से संवाद के लिए उन्हें दूसरी भाषा सीखनी ही पड.ती है और वे सीखते हैं। परिणामस्वरूप प्रायः हर आदिवासी द्विभाषी हो जाता है। अधिक भाषाएं सीखना अच्छी बात है लेकिन मजबूरीवश दूसरी भाषा अपनाना और अपनी भाषा त्यागना, उसकी अपनी मातॐभाषा को ही मार देता है। इसका ज्वलंत उदाहरण हैङ्कझारखंड के क्षेत्राों में, विशेषकर रांची के क्षेत्रा में उरांव लोगों का कुड ुख भाषा के बदले नगपुरिया बोलना शुरू कर देना और दक्षिण के चारों राज्योंङ्ककेरला, आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु के आदिवासियों द्वारा इन राज्यों की क्षेत्राीय भाषाओं में ही संवाद करना या लिखनापढ ना। वे अपनी मातॐभाषाएं गंवा चुके हैं।
इन भाषाओं के लुप्त होने का एक और बड ा कारण हैङ्कआदिवासी क्षेत्राों में कुकुरमुत्तो की तरह अंग्रेज ी माध्यम स्कूलों का खुल जाना। इससे भी आदिवासी भाषाओं को क्षति पहुँच रही है। अंग्रेज ी पढ ना बुरा नहीं लेकिन अंग्रेज ी का जुनून आदिवासियों में अपनी मातॐभाषा त्यागने की प्रवॐत्तिा पैदा कर रहा है, जिससे केवल उनकी भाषा ही खत्म नहीं हो रही बल्कि उनका अस्तित्व भी खत्म हो रहा है। इस प्रकार ये स्कूल उनके आदिवासीपन को ही मार देते हैं, जिससे उनकी भाषा, संस्कॐति व जीवनशैली भी शनैः शनैः समाप्त होने लगती है।
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1 टिप्पणी:
बहुत ही विचारणीय उम्दा जानकारी देती पोस्ट वास्तव में हर गाली स्त्री को ही निशाना बनाकर दिया जाता है,जो बेहद शर्मनाक है / उम्दा प्रस्तुती /रमणिका जी हम चाहते हैं की इंसानियत की मुहीम में आप भी अपना योगदान दें कुछ ईमेल भेजकर / पढ़ें इस पोस्ट को और हर संभव अपनी तरफ से प्रयास करें ------ http://honestyprojectrealdemocracy.blogspot.com/2010/05/blog-post_20.html
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