मंगलवार, 19 नवंबर 2013

ओमप्रकाश वालमीकि के निधन पर शोकसभा

दलित साहित्य के अहम हस्ताक्षर ओमप्रकाश वाल्मीकि के निधन पर रमणिका फाउंडेशन, जनवादी लेखक संघ और दलित लेखक संघ के संयुक्त तत्वावधान में रमणिका फाउंडेशन के ए-221 स्थित आवासीय कार्यालय में एक शोकसभा का आयोजन किया गया जिसमें दिल्ली और आसपास के 30 से ज्यादा साहित्यकारों ने उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि दी।
उल्लेख्य है कि स्व. वाल्मीकि जी का जन्म 30 जून 1950 को उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के बरला गांव में हुआ था।  17 नवंबर 2013 को उनका निधन हो गया। वक्ताओं ने इसे हिन्दी साहित्य की अपूरणीय क्षति बताया। उन्होंने कहा कि हिन्दी पट्टी में दलित साहित्य को अपनी रचनाओं के जरिये स्थापित करने का काम ओमप्रकाश वालमीकि ने किया। उनकी आत्मकथा जूठन ने राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दलित साहित्य को पहचान दिलाई। वक्ताओं ने वालमीकि जी के साथ जुड़े अपने संस्मरण सुनाये, उनके साहित्य सृजन पर अपने विचार रखे। दिवंगत आत्मा की शांति के लिये दो मिनट का मौन रखा।  रमणिका गुप्ता जी ने उनके मिशन के प्रति आस्था प्रकट करते हुए उसे आगे बढ़ाने का संकल्प लेने का आह्वान किया।
शोकसभा को प्रो एमपी वर्मा, जनवादी लेखक संघ के महासचिव चंचल चौहान, हेमलता माहेश्वर, महेश कुमार, संजीव कुमार, सत्यानंद निरूपम, अशोक माहेश्वरी, अनिता भारती, धर्मवीर सिंह, सरोज श्रीवास्तव स्वाति, अनीता सोनी, अंजली देशपांडे, सरोज कुमार महानंदा, भगवान प्रसाद श्रीवास्तव, भरत तिवारी, जितेंद्र श्रीवास्तव, जवरीमल्ल पारख, मदन कश्यप, कृष्ण परख, रमेश मंगी, हीरालाल राजस्थानी, केपी मौर्य, विमल सरकार, शिखा गुप्ता, ओम सिंह अशफाक, मित्र  रंजन, अनामिका आर्या,डा. पूरन सिन्हा, डा. अभय कुमार सहित अन्य लोगों ने संबोधित किया। शोकसभा का संचालन अजय नावरिया ने किया.

शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

रमणिका जी अस्पताल से वापस लौटीं


रमणिका जी अपोलो अस्पताल से इलाज के बाद घर लौट आयी हैं। अब वे स्वस्थ हैं। 2 नवंबर को  उन्हें देर रात को अस्पताल में भर्ती करना पड़ा था। 13 नवंबर को वे अस्पताल से डिसचार्ज हुईं। घर पहुंचते ही लेखन संपादन कार्य में सक्रिय हो गईं।  इस बीच देश के विभिन्न इलाकों से उनके शुभचिंतकों के फोन आते रहे। जो आ सकते थे अस्पताल में मिलने आये। हम रमणिका फाउंडेशन की ओर से उन सभी शुभचिंतकों को धन्यवाद देते हुए स्नेह बनाये रखने की अपील करते हैं।

---रमणिका फाउंडेशन

शनिवार, 2 नवंबर 2013

राजेंद्र यादव का गुजरना एक युग का गुजरना

मोहन राकेश और कमलेश्वर के बाद हिन्दी साहित्य का एक और स्तंभ ढह गया। हंस पित्रका के संपादक राजेंद्र यादव नहीं रहे। 29 अक्टूबर 2013 की रात 12 बजे सांस रुक जाने के कारण उनका देहांत हो गया। वे हिन्दी कथा लेखन के एक स्कूल थे। उन्होंने प्रेमचंद के हंस की परंपरा को विस्तार दिया। उनके सानिध्य में नवोदित कथाकारों की एक पीढ़ी सामने आयी। उन्होंने लेखन के माध्यम से दलित आंदोलन को विस्तार दिया। हिन्दी जगत का दलितों के प्रति नज़रिया बदलने का काम किया। स्त्री-मुक्ति के लेखन को नया आयाम दिया। रमणिका फाउंडेशन और युद्धरत आम आदमी परिवार उनकी मृत्यु से शोक संतप्त है और उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करता है। रमणिका जी उन्हें अपना गुरु मानती रही हैं। राजेंद्र यादव का गुजरना अत्यंत ही पीड़ादायक है लेकिन मृत्यु के बाद उनका ब्राह्मणवादी आडंबर से गुजरना और भी अधिक पीड़ादायक है। जिस व्यक्ति ने जीवन भर ब्राह्मणवादी आडंबरों, अनुष्ठानों और अंधविश्वासों का विरोध किया उसका अंतिम संस्कार ब्राह्मणवादी तरीके से हो यह चिंता ही नहीं शोक का विषय है।

शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2013

वर्तमान समय और युवा साहित्य’ विषय पर साहित्यकार सम्मेलन

अलवर. राजस्थान साहित्य अकादमी तथा बी एस मेमोरियल शिक्षा समिति के संयुक्त तत्वावधान में अलवर में ‘वर्तमान समय और युवा साहित्य’ विषय पर  साहित्यकार सम्मेलन आयोजित किया गया. सम्मलेन में अकादमी के अध्यक्ष वेद व्यास ने कहा कि बाजारवाद ने समाज में व्याप्त बुराइयों के लिए मूल तक पहुंच कर उन्हें समाप्त करने की कोशिश करने वाले लेखन की कमर तोड़ दी है। दिल्ली से आए कथाकार भगवानदास मोरवाल ने कहा कि साहित्य में दलाल संस्कृति पैदा हो गई है जिसके कारण आलोचना के सामने चुनौतियां बढी हैं. बनासजन के संपादक पल्लव ने कहा कि साहित्यकारों ने दिल्ली को साहित्य का केंद्र मान लिया है जबकि हिन्दी की रचनाशीलता कहीं अधिक व्यापक है।
 उन्होंने इधर के परिदृश्य में आई कुछ उल्लेखनीय किताबोने की चर्चा करते हुए बताया कि इस दौर में राजस्थान के लेखकों ने भी खासी पहचान बनाई है।  युवा लेखिका डॉ. प्रज्ञा ने कहा कि खोखला लोकतंत्र साहित्य के लिए खतरा बन रहा है। इसकी जन विरोधी नीतियों की खिलाफत करने पर दमन कर दिया जाता है। डॉ प्रज्ञा ने युवा लेखन में गहरे वैचारिक सरोकारों की जरूरत बताई। वर्धा से आए समालोचक प्रो शंभू गुप्त ने कहा कि आचरण को लेकर बहस हो तो साहित्य जगत से आधा साहित्य निकालना होगा। उन्होंने कहा कि हर दस  साल बाद साहित्य की पीढ़ी बदल जाती है ऐसे में युवा विशेषण की अधिक प्रासंगिकता नहीं रह जाती।
समालोचक डॉ. जीवन सिंह  ने कहा कि जीवन में अनुभवों की परिपक्वता आने पर ही लेखक युवा होता है। अनुभव की कमी के बिना युवा लेखक वास्तविकता के करीब नहीं पहुंच पाते हैं। लेखक के परिपक्व होने पर ही साहित्य का युवापन शुरू होता है। फिर भी युवा लेखक अच्छा लेखन कर रहे हैं।
चितौडग़ढ़ से आए युवा लेखक डॉ.कनक जैन ने कहा कि वर्तमान दौर में साहित्य गौण हो गया है। युवा लेखकों को इस समझते हुए अपनी भूमिका को प्रभावी बनाना होगा। कार्यक्रम में राजकीय महाविद्यालय गोविंदगढ़ की प्रवक्ता डॉ. जयश्री ने भी विचार व्यक्त किए। अध्यक्षता प्रो. जुगमंदिर तायल ने की। संचालन संयोजक रेवती रमण शर्मा व जगदीश शर्मा ने किया। विषय प्रवर्तन डॉ.नंद किशोर नीलम ने किया।

रेवतीरमण शर्मा 
द्वारा बी एस मेमोरियल शिक्षा समिति

बुधवार, 2 अक्टूबर 2013

दिल्ली में छोटानागपुर आदिवासी करम महोत्सव

नई  दिल्ली (डी के चौहान ) भारतीय आदिवासी संगमम और छोटानागपुर वर्किंग वीमेन सोसाइटी के  सहयोग से एक दिवसीय छोटानागपुर आदिवासी करम महोत्सव का आयोजन लक्ष्मीबाई नगर के समुदाइक भवन में किया गया. इस अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में प्रसिद्ध लेखिका, समाजसेवी तथा झारखण्ड के पूर्व विधायिका रमणिका गुप्ता रही. 

उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि मुझे करम महोत्सव में शामिल होकर अपने झारखण्ड के याद आ गया. आगे उन्होंने कहा दिल्ली जैसे महानगरो में रहकर भी आपलोग अपने संस्कृति, परंपरा  जो 5 हजार वर्ष पुराने है उनको बचाए रखे है यह सबसे बड़ी बात है.आपलोगों के समाज में सबसे बड़ी खासियत सामूहिक में विस्वास रखना है जो दुसरी समाज में देखने को नहीं मिलता है  . आपलो भाईचारे, आजादी और बराबरी में विस्वास रखते है. 

आगे उन्होंने कहा कि आदिवासियों को अपने हक़ के लिए बहुत लड़ाई करनी पड़ती है. असम में रह रहे आदिवासियों को भी केन्द्रीय सरकार आदिवासी का दर्जा  देनी चाहिए। जिससे उनका सर्वागीण विकास हो सके. 

इस अवसर पर भारतीय आदिवासी संगमम दिल्ली शाखा के अध्यक्ष श्री नोबर एक्का ने कहा कि हम आदिवासी परंपरा करम महोत्सव हर वर्ष मानते है. हम आदिवासियों का सम्पूर्ण जीवन प्रकृति के साथ जुडी हुई है उसी प्रकार हमारे हरेक पर्व प्रकृति से जुडी हुई है. करम पर्व भी प्रकृति के रूपरेखाओ से जुडी हुई है. हमारे हर त्यौहार हमारे पूर्वजो की जीवन लीलाओ की घटना, कहानी संस्कृति, भाषा से सम्बंधित है जो हमें जागरूकता, विस्वास, शिस्ताचार,एवं हमारे बुजुर्ग की तरह सेवात्मक जीवन जीने की प्रेरणा प्रदान करता है. 

उन्होंने कहा की भारत के आदिवासी क्षेत्र में हम आदिवासी समुदाई का शोषण हो रहा है. जैसे नृजातीय संघर्स, अधिकार से वंचित, विस्थापन आरक्षण, सामूहिक बलात्कार, लापता वेरोजगार के कारन हम आदिवासी असहाई एवं भाई पूर्ति जीवन जी रहे है तथा हथियार उठाने के लिए मजबूर हो रहे है. 

इस अवसर पर पहन की भुमिक विनसेंट एक्का ने निभाई। महोत्सव का सञ्चालन अशोक कुमार बाखला ने किया। डॉ शेशील खखा धन्यबाद भासन दिया। 

इस अवसर पर कई आदिवासी ग्रौपो ने नृत्य किया। मंदर ढोल, ताल के आवाजो से पुरे समुदाई क भवन गूंज उठा और लोगो को नाचने को मजबूर कर दिया। सभी लोगो ने नित्य का भरपूर मजा लिया। 

इस अवसर पर अविनाश कुल्लू ( अध्यक्ष, वेल्फर असोसियेसन ऑफ़ खड़िया ट्राइब्स, दिल्ली) सिलास कुजूर, सुशिल कुमार तिर्की, फुल्केरिया, जॉन मिंज, मक्सिमा, अनीता, निरंजन बारवा, पत्रकार डी  के चौहान, बिरदी लकड़ा, सुनील केरकेट्टा सहित कई गण्यमान्य व्यक्ति मौजूद रहे.

सोमवार, 30 सितंबर 2013

सांप्रदायिक फ़ासीवाद का उभार और लेखकीय प्रतिरोध का समय

                    चंचल चौहान

निराला की एक कविता है : 'राजे ने अपनी रखवाली की।‘ यह साफ़तौर पर वर्ग-विभाजित समाज में शोषकवर्ग के वर्चस्व से जुड़ी असलियत खोलती है। वाचक ने इस कविता में शोषण के वर्ग आधार और उस पर खड़ी संरचना या सुपरस्ट्र्क्चर के चरित्र को उदघाटित किया है। राजा अपनी रखवाली कि़ला बनाकर, फ़ौजें रखकर तो करता ही है, वह आम जनता को मानसिक रूप से गुलाम बनाकर भी शासन करता रहता है :

कितने ब्राहमण आये
पोथियों में जनता को बांधे हुए
कवियों ने उसकी बहादुरी के गीत गाये
लेखकों ने लेख लिखे
ऐतिहासिकों ने इतिहास के पन्ने भरे
कितने नाटय-कलाकारों ने नाटक रचे
रंगमंच पर खेले ।
जनता पर जादू चला -- राजे के समाज का


समाज के मूलभूत आर्थिक आधार और उसे सहारा देने वाली उपरिसंरचना की यही असलियत हमें मुकितबोध की कविता,अंधेरे में’ के केंद्र में देखने को मिलती है जिसमें रात के अंधेरे में सड़क पर चलने वाले शोषकों के जुलूस में जो शामिल हैं,वे सुपरस्ट्र्क्चर का ही रूप हैं। हिंदी के इन दो महान कवियों की ये कविताएं एक वैज्ञानिक सत्य कहती हैं कि वर्गविभक्त समाज में शोषकवर्ग अपने शोषणपरंपराक्रम को जारी रखने की कोशिश में तरह तरह के खेल खेलता है। पूंजीवाद अपनी इज़ारेदाराना करतूतों से समाज के विशाल हिस्से का शोषण करके उसे इतना ग़रीब बना देता है कि शोषितजन उत्पादन की प्रक्रिया में अलग थलग पड़ जाते हैं और उनके पास कुछ भी ख़रीदने की ताक़त नहीं बच पाती। ऐसे मोड़ पर पूंजीवाद भी भयंकर संकट की चपेट में आ जाता है और तब इजारेदार पूंजीपतिवर्ग शोषित अवाम के सामने फ़ासीवाद का तंत्र पेश करता है इसलिए समाजशास्त्रियों ने फ़ासीवाद की परिभाषा करते हुए यह बताया है कि फ़ासीवाद वित्तीय पूंजी का सबसे घिनौना रूप है। यही घिनौना रूप पिछली सदी के चौथे दशक में भयंकर आर्थिक संकट और मंदी के दौर में विश्वपूंजीवाद ने जर्मनी में हिटलर के रूप में उभारा था जिसने प्रजाति के मिथ्या आधार पर मानवता को बांट कर इस सुंदर धरती को मानवरक्त से रंग डाला था। फ़ासीवाद के घिनौने रूप के प्रतिरोध में उन दिनों दुनिया भर के लेखक, कलाकार, बुद्धिजीवी और संस्कृतिकर्मी संगठित हो कर मानवता को बचाने के अभियान में शामिल ही नहीं हुए, कुछ एक ने तो उनके खि़लाफ़ जंग में हिस्सेदारी करके अपने प्राणों की कुरबानी तक दे दी। भारत के भी कर्इ रचनाकार उस प्रतिरोध में शामिल हुए और उसी से प्रेरणा ले कर उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के रूप में लेखकों को संगठित करने की अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी भी निभायी। हम उन महान रचनाकारों की गौरवपूर्ण परंपरा की मशाल भला कैसे बुझ जाने देंगे! इसलिए दुनिया के किसी भी कोने में अगर फ़ासीवाद अपना सिर उठायेगा, तो हम उसके प्रतिरोध में आगे ज़रूर आयेंगेहमें आगे आना ही चाहिए।

        आज हमारे देश और समाज पर इज़़ारेदार पूंजीपतिवर्ग और बड़े भूस्वामियों के ऐसे गठजोड़ का शासन चल रहा है जो अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी से समझौता करके उसकी बतायी गयी रीतिनीति पर चल रहा है जिसे हम भूमंडलीकरण और उदारीकरण की रीतिनीति के नाम से जानते हैं। इन दोनों नारों का सारतत्व यह है कि उत्पादन के साधनों और वित्तीय संस्थानों पर निजी पूंजी का वर्चस्व हो जाये, जनता की खूनपसीने की कमार्इ से बनाये गये पब्लिक सेक्टर इन्हीं देशी विदेशी इजारेदारों को बेच दिये जायें, राष्ट्रराज्य समाजकल्याण के कामों पर पैसा खर्च न करे। हर सेवा के लिए अवाम पैसा खर्च करे जिससे हर सेवा से निजी पूंजीपतिवर्ग ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमा सके। मेहनतकशों और शोषित समाज को संगठित न होने दिया जाये जहां संगठित हैंउन पर हमले किये जायें और किसी तरह उन्हें असंगठित क्षेत्र में धकेल दिया जाये। समाज पर राजनीतिक कब्ज़ा किसी पार्टी का होनीतियां इज़ारेदार पूंजीपतिवर्ग और उसकी सहयोगी शकित अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी को फ़ायदा पहुंचाने वाली ही रहें अगर आप सांपनाथ से परेशान हो जायें, तो नागनाथ को चुन लें। ये नमो’ नाम के नागनाथ भी उन्हीं इज़ारेदारों के ज़रख़रीद गुलाम हैं जिनकी सेवा में अब तक सांपनाथ लगे रहे। अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी यानी आइ एम एफ़ और विश्वबैंक ने अपने दो जानसेवक - प्रधानमंत्री और योजना आयोग के चेयरमैन - भारत के प्रशासन में दाखि़ाल कराये जिससे साम्राज्यवादी ताक़तों के हितों को कोर्इ नुक़सान न पहुंचे। अभी हाल में रिज़़र्व बैंक के गवर्नर भी उन्हीं शक्तियों ने सप्लार्इ किये हैं वे 2003 से 2006 तक आइ एम एफ़ की सेवा में प्रमुख अर्थशास्त्री के पद पर काम कर चुके हैं।
इन सबकी नीतियों से भारत के ग़रीब और बदहाल हो गये। उनमें एक गुस्सा पनप रहा है। यह गुस्सा आजकल कहीं न कहीं तरह तरह से फट पड़ता है। इस गुस्से को देखते हुए वे ही शक्तियां जो कल तक सांपनाथ के माध्यम से अवाम का खून चूस रही थीं, अब एक नया विकल्प नमो’ नामक नागनाथ के रूप में पेश कर रही हैं सांप्रदायिक फ़़ासीवादी संगठन,आर एस एस का चहेता यह नागनाथ सभी शहरों में जा जा कर फुंकार भर रहा है। वही लफ्फ़ाजी कर रहा है जो दुनियाभर के फ़ासिस्ट करते रहे हैं और जो अपनी रीतिनीति में लोकतंत्रविरोधी कार्रवाइयां करते रहे हैं। वह चिल्ला चिल्ला कर कह रहा है कि सरकार का काम व्यापार करना नहीं, सारा व्यापार, सारे कल कारखाने निजी पूंजीपतियों को दे देंगे जिससे वे मनमाना मुनाफा कमा सकें नेहरू का ‘समाजवाद’ नहीं चलने देंगे। वह प्रधानमंत्री अभी बना नहीं, निजीकरण का ढोल कांग्रेस के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा ज़ोर से पीट रहा है। उसने गुजरात के एक उत्सव में देशी विदेशी पूंजीपतियों की ख़ातिरदारी की और उन्हें आश्वस्त किया कि उनका हितसाधन पूरी तरह से यह पूंजीदास करेगा।
     इजारेदार पूंजीपति किस तरह इस सांप्रदायिक फासीवादी नागनाथ को मीडिया पर उभार रहे हैं, यह सत्य किसी से छिपा नहीं है। इंटरनेट की दुनिया में यह छल छिपाया भी नहीं जा सकता। ‘रायटर’ नामक एक विदेशी न्यूज़एजेंसी ने इन नागनाथ की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की घोषणा से पहले ही 7 सितंबर को संजय मिगलानी की एक रिपोर्ट छापी जो इंटरनेट पर भी उपलब्ध है जिसमें कहा गया है कि भारत के तीन चौथार्इ इज़ारेदार पूंजीपति इस भाजपायी नागनाथ को प्रधानमंत्री पद पर आसीन देखना चाहते हैं। इन पूंजीपतियों के इंटरव्यू टीवी चैनलों पर भी आ रहे हैं जो बिना लागलपेटनमो’ नागनाथ के प्रति अपने प्यार का इज़हार करते रहते हैं।
        सांप्रदायिक फ़ासीवाद की विचारधारा का उभार भारत की आज़़ादी के दौर में विकसित मानवीय मूल्यों के विनाश का कारण बन सकता है। भारत की सदियों की साझा संस्कृति के भावी विकास से ही हम एक आधुनिक सभ्य समाज की रचना कर सकते हैं। हमारे इस अभियान को ऐसी ताक़तों से कहीं ज़्यादा ख़तरा है जिनका जनवाद में विश्वास ही नहीं। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने के इरादे से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जगह जगह सांप्रदायिक सदभाव की हत्या करने में अभी से लग गया है। यूपी जैसे हिंदी-उर्दूभाषी क्षेत्र में जहां उनकी सरकार नहीं हैं और जहां पिछले चुनावों में उनको कामयाबी नहीं हासिल हो पायी, यह फ़ासीवादी संगठन पूरी ताक़त से सांप्रदायिक ज़हर फैलाने की कोशिश करने में लग गया है क्योंकि लोकसभा की अस्सी सीटों वाले उत्तर प्रदेश में सफलता हासिल किये बग़़ैर नागनाथ को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचान मुमकिन नहीं आडवाणी जी वाला ही हाल होना है इसलिए संघ यूपी के अवाम के दिलोदिमाग़ में सांप्रदायिक ज़हर भर कर सत्ता हथियाने की जीजान से कोशिश करने में लग गया है। आज भाजपायी अचानक फिर से धर्मधुरंधर हो उठे हैंफिर से मंदिर की अचानक याद आ गयी है, राममंदिर के नाम से करोड़ो रुपये डकार जाने के बाद भूली बिसरी बेचारी अयोध्या की याद फिर से आ गयी है उसकी चौरासी कोसी यात्रा के बहाने धार्मिक भावनाओं का दोहन करने की योजना आदि उसी मक़सद के अक्स हैं।
      यह तथ्य किसी से छिपा नहीं कि आर एस एस लोकतंत्रविरोधी संगठन है। उसी का यह सबूत है कि चुनाव से पहले ही किसी व्यक्ति को भारत के भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश कर दिया जाये। यह क़दम भारत के संविधान की धारा 75 का उल्लंघन करता है जिसमें यह लिखा है कि The Prime Minister shall be appointed by the President and the other Ministers shall be appointed by the President on the advice of the Prime Minister.”(Article 75)। भारत का संविधान किसी पार्टी प्रेसिडेंट को यह अनुमति नहीं देता कि वह भारत के प्रधानमंत्री के नाम की घोषणा करे। मगर बेचारा पार्टी प्रेसिडेंट भी क्या करे, वह तो आर एस एस का ज़रखरीद गुलाम है, हुक्मउदूली करता तो मारा जाता। जो संगठन गांधी जी जैसे महान व्यक्ति की हत्या करवा सकता है तो कोर्इ छुटभइया उसकी हुक्मउदूली करने की जुर्रत कैसे कर सकता है। क्या कोर्इ संगठन इतना कूढ़मग़ज़ हो सकता है जो यह नहीं जानता कि भारत का प्रधानमंत्री बनाने के लिए पहले तो सांसद चाहिए, तो पहले लोकसभा की सारी सीटों के सांसद घोषित करने चाहिएथे, तो भी कुछ तर्कसंगत लग सकता था। उससे पहले एक मैनीफ़ैस्टो पेश करते। मगर ऐसा कुछ भी नहीं। यह सब करते तो सीटों को ले कर जूते चलने लगते फिर मैनीफैस्टो से उन आर्थिक नीतियों का पर्दाफ़ाश हो जाता जो सांपनाथ की भी हैं। इसलिए एक अदद चेहरा पेश कर दिया जिसे चैनलों ने और अख़बारों ने ताजपोशी’ नाम दिया जैसे कि भारत एक सामंती देश है। 15 अगस्त को नागनाथ ने नक़ली लाल कि़ले से बोलने का स्वांग किया खूब हुंकार फुंकार की। एक दिन कहीं द्वारकाधीश कृष्ण की तरह की पोशाक पहन कर हाथ में नकली चक्र थामे हुए उसे टी वी पर सामंती स्वांग करता हुआ दिखाया गया। सब कुछ उल्टा पुल्टा इसीलिए हो रहा है क्योंकि सांप्रदायिक फ़ासीवाद की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में कोर्इ आस्था नहीं। इससे जुड़े सांसद झूठमूठ ही संविधान में आस्था की क़सम खाते हैं। झूठहि लेना झूठहि देना / झूठहि भोजन झूठ चबेना।।‘
    गुजरात के विकास की कहानी भी झूठ पर आधारित है। गुजरात उन्नीसवीं सदी से ही पूंजीवादी विकास की ज़द में आ गया था। इसलिए नमो’ नामक नागनाथ ने ऐसा कोर्इ चमत्कार नहीं कर दिया जिसका ढोल पीटा जा रहा है। वह विकास कर्इ अन्य राज्यों की तुलना में इस समय भी ज्यादा नहीं है। नीचे की तालिका से यह साफ हो जायेगा कि किस तरह जनता के सामने झूठ पर झूठ परोसा जा रहा है:
                         Year-wise List of Top Ten States with GDP Shares (in Rs Crore)

State/UT        1999-2000   2001-2002           2003-2004   2005-2006       2007-2008   2009-2010       2010-2011
Maharashtra    2,47,830         2,73,188                3,40,600      4,83,222          6,79,004      9,01,330          10,29,621
Uttar Pradesh   1,75,159         1,90,269                2,26,972      2,91,936          3,79,917      5,19,899          5,95,055
Andhra Pradesh  1,28,797         1,56,711                1,90,017      2,55,941          3,64,813      4,75,267          5,88,963
Tamil Nadu     1,34,185         1,48,861                1,75,371      2,57,730          3,50,785      4,64,009          5,47,267
Gujarat          1,09,861       1,23,573                1,68,080      2,44,736          3,29,285      4,29,356          5,13,173
West Bengal     1,35,376         1,57,144                1,89,259      2,30,639          2,98,566      4,00,561          4,73,890
Karnataka       1,01,247        1,12,847                1,30,990      1,95,750          2,70,843      3,35,747          4,05,123
Rajasthan         82720        91771          1,11,606      1,42,236          1,94,822      2,55,440          3,23,682
Kerala           69168            7924              96698      1,36,842          1,75,141     2,30,316          2,76,997
Delhi             55220       65027            79468      1,15,374          1,57,947      2,17,851          2,64,496

इस तालिका से ज़ाहिर है कि गुजरात का नाम पांचवे स्थान पर है अन्य चार राज्य कहीं आगे हैं। इसी तरह तीन बार चुनाव जीत जाने से कोर्इ चमत्कारी इंसान नहीं बन जाता। शीला दीक्षित ने भी तीन बार चुनावा जीता, प. बंगाल के वाममोर्चे ने तो रिकार्ड ही क़ायम कर दिया, त्रिपुरा की भी यही स्थिति है जहां पहले के मुक़ाबले इस बार वाममोर्चे को ज़्यादा सीटें हासिल हुर्इं, जब कि गुजरात में पहले नमो’ ने 117 सीटें हासिल की थीं उसके बाद के चुनाव में दो सीटें कम हो गयीं, इसे उसकी अपने ही राज्य में घटती लोकप्रियता का ही सबूत कहेंगे।  विविधता में एकता’ वाले भारत देश के हर कोने में कोर्इ सांप्रदायिक फ़ासीवादी अभी से लोकप्रिय होने का दावा करे तो यह हास्यास्पद ही होगा।
        भारत की साझा संस्कृति में यक़ीन रखने वाले और लोकतांत्रिक जनवादी मूल्यों के विकास के लिए प्रतिश्रुत सभी रचनाकारों और संस्कृतिकर्मियों का आज के दौर में यह सामाजिक दायित्व है कि वे सांप्रदायिक फ़ासीवाद के मंसूबों को समझते हुए इज़ारेदार पूंजीपतियों और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के द्वारा भारत पर थोपे जा रहे नमो’ नागनाथ के हाथ भारत की राजनीतिक सत्ता सौंप देने की चालों को नाकाम करने में अपने आलोचनात्मक विवेक का पूरा प्रयोग करें और अपने प्रतिरोध की आवाज़ सभी संभव मंचों व माध्यमों से जन जन तक पहुंचायें इसी प्रक्रिया में अधिक से अधिक रचनाकारों को आज संगठित होने की भी ज़रूरत है जिससे यह अभियान एक संगठित ताक़त बन सके।
अंत में, एक रचनाकार की इस चिंता को व्यक्त करती हुर्इ असद ज़ै़दी की इस कविता में हम सभी खुद को शरीक करें :

            आम चुनाव
            असद ज़ैदी

आम चुनाव में मतदान के रोज़
अपनी बारी के इंतज़ार में खड़े मोहन भाई
किसी और युग में भटकने लगे

वहीदा रहमानी
कुसुमलता माथुर
एक वी गौरी देवी
सुमित्रा भट्ट
इनमें चुनाव का सवाल ही क्या
दिल तो इन सबसे लगाया ही था

एक तपस्वी की तरह
कोई इस इतिहास को तो बदल नहीं सकता
गर इनमें किसी से रू.ब.रू कुछ कह न सके
तो अपने ही स्वभाव का दोष था
और इस बात का अफ़सोस भी क्या करना
एक भी औरत अब इस शहर में नहीं
कहां हैं वे सब, जानने की कोशिश ही न की

ऐ भली औरतो ऐ सुखी औरतो
तुम जहां भी हो
अगर वोट डालने निकल ही पड़ी हो
तो कहीं भूल के भी न लगा देना

उस फूल पर निशान ।

शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

Interpreter of dreams

For 80-year-old Ramnika Gupta from Jharkhand, allowing voices to be heard that are rarely heard and yet have a lot to say, has resulted in a mission to hunt out and publish the works of tribal and dalit writers.

Thanks to her efforts over the years, several collections of dalit and tribal poetry, short stories, and books have been published. The magazine she founded Yudhrat Aam Admi has featured the works of many tribal and dalit writers. The All India Tribal Literary Forum, also her baby, is one of very few forums for tribal literature. And the Ramnika Foundation works for the emancipation of the underprivileged in several areas -- from education to legal assistance, research, cultural preservation and material assistance.

Is it really necessary to have a separate dalit/tribal genre of literature? Ramnika Gupta’s answer is to quote from a poem by Vahru Sonwane, a tribal poet of Maharashtra:

We never went on stage that was made in our name,

They did not invite us They pointed with their finger And showed us our place We sat there They appreciated us They were narrating to us Our own vows and sorrows Which were ours and never theirs We had some doubts We murmured They heard us attentively and sighed They twisted our ears and said- Apologise... or you will be...” “It is for this reason that tribal and dalit literature is required,” Gupta says. But the two literatures are very different. The dalits are landless and do not have their own language. Their literature is written in Hindi and other languages. They are victims of caste oppression and untouchability even today and hence have not developed self-respect; many are still engaged in occupations considered unclean. “They belong to the pancham varg of society, where the so-called upper castes do not take water from their hands,” Gupta says.

The adivasis or tribals, on the other hand, belonged to the forests which began to be taken away from them following British rule. Tribal-inhabited lands are rich in minerals so the pressing issues confronting them today are displacement and migration in search of livelihood. They have a rich language and culture, but today their very identity and existence are in peril.

Gupta says there are 90 known tribal languages in the country, of which she has been able to document 27 so far. “A literature that encapsulates a history of at least 3-4,000 years, a wonderful diversity with abundance of communities, and which is composed in 90 languages doesn’t exist anywhere else in the world – neither in American Black literature, nor Australian nor Negroid. It is a unique chapter in the history of world literature,” she says.

Though this multi-lingual tribal literature has been preserved through an oral tradition for 5,000 years, the written form of tribal literature is barely 100-125 years old, starting with the script of the regional language of the area. Christian missionaries who came to the tribal states took an interest in learning the language and began documenting tribal culture and history in English.

Gupta emphasises language because the language revolution can be really powerful in fighting the tyranny of the ruling class.

“Our main aim and agenda is to generate the socio-cultural forces that are necessary for bringing about an attitudinal change in people’s outlook to the victims of socio-cultural injustice, especially tribals, dalits and even women. For this, it is very essential that victims of injustice, exploitation and discrimination come forward and assert their voice in unison. To do this it is also essential that they shake off the inferiority complex they have developed over centuries of suppression and subjugation. It is also necessary that they fight for their self-respect and identity,” Gupta says.

The need to focus on indigenous literature, Gupta says, is “because we wanted to stop the prevalent practice of non-tribals speaking, writing and representing them, without caring what the tribals actually want, think, dream or plan. So we started a reverse process, ie the victims of injustice and discrimination should speak for themselves and assert what type of change they want to promote. Their literature may not have the conventional aesthetics, but it is grounded in reality, it is their voice, their struggle, their pain and anguish that are penned by them, as they see it.”

Tribal literature has always existed as an oral tradition, but when it is written down, the culture is documented, the history and trends are recorded and it is not lost, infiltrated, and imposed on by outsiders, Gupta explains.

“I got a chance to interact with a large cross-section of downtrodden society (dalits). I began collecting their works; their writings were stark depictions of their struggles, the pathos of discrimination, the trials and tribulations of their life. This led to the birth of the magazine Yudhrat Aam Admi in 1986,” Gupta says, describing the genesis of her interest.

In 1997, she formed the Ramnika Foundation which promoted, among other things, the literature of dalits. In 2002, the All India Tribal Literary Forum (AITLF) was formed with Dr Ram Dayal Munda, Sangeet Natak Academy awardwinner and eminent academician from Jharkhand, as president. AITLF has since been holding regular conferences across the country to mobilise tribal and dalit writers and collect their works, many of which are published in Yudhrat Aam Admi.

This quarterly magazine has become a gateway of expression for numerous tribal and dalit writers across the country. It publishes work in the original language and in Hindi translation, thus bringing a subaltern literature into the national limelight. Poems, stories, lyrics, novels and other literary forms from writers and poets of the north-eastern states, Jharkhand, Punjab, Gujarat, Maharashtra, Andhra, Tamil Nadu and other states, get exposure and are themselves exposed to outside critique.

The conferences organised by AILTF not only take these little-known writings into the outside world, they also discuss important tribal and dalit issues. These include a clearly drawn up 12-point agenda which includes highlighting the unjust development policies of the government which cause displacement and migration; denigration of tribal scriptures by mainstream languages; education in the mothertongue; change of curriculum in schools and colleges and introduction of tribal and dalit literature.

Yudhrat Aam Admi’s print-run of 2,500 is quickly sold out. The translations into Hindi are done by Gupta’s friends including Akil Quis and Pramila Garg of Jawaharlal Nehru University, and by Gupta herself. Often the authors do a basic translation in Hindi or English, which is then perfected by professionals such as Suresh Sahil and Madan Kashyap.

The material published in Yudhrat Aam Admi is now considered basic reference material for research work on dalit and tribal literature, which is carried out by several universities in the country such as Ranchi University, in Jharkhand, Cochin University in Kerala, Nagpur University, Central University and Osmania University in Hyderabad, and Arunachal University.

The excellent response to the magazine emboldened Gupta to compile the writings and publish them as books: Dalit Chetna is a collection of 41 poems, Chetna Kahani showcases the literary talent of 28 writers. Dalit Chetna Soch and Dalit Chetna Sahitya followed.

The AITLF has concentrated on different languages and language centres. Thus there is the Telegu Sahitya Me Dalit Dastak and the Gujarati Sahitya Me Dalit Kadam etc.

Four hundred dalit and tribal writers have been featured in a series of special issues between 1995 and 2000, surely a first of its kind.

“Our success story inspired the Indira Gandhi National Open University to start a post-graduate course in Dalit Literature,” Gupta says. Equally successful were the endeavours of the forum in the north-eastern states. A special issue on the North-East, ‘Purvottar Ka Adivasi Swar – Vichar Khand’, showcased the work of 60 writers in 13 languages of the region. A directory of 105 writers from the north-eastern states has been published in two volumes.

In 2002, the Sahitya Akademi joined hands with AITLF to host the first major tribal literary conference in New Delhi. This was followed by conferences in association with Kannad University in Tami Nadu, the Vinoba Bhave University, Hazaribagh, and others across the country.

“These writers across the country need to be honoured and felicitated for their work,” Gupta points out. To this end, the Ramnika Foundation Samman selects writers from the remote hinterlands and awards them for their creative writing. In this way new talent has been unearthed -- Nirmala Putul from Jharkhand went on to bag the Kendriya Hindi Sansthan Award, and the National Youth Award besides the Bharat Adivasi Samman award given by the Ramnika Foundation in collaboration with the National Book Trust in 2005, for her powerful Santhali writing.

In Nagare Ki Tarah Bajte Hain Shabad (Words Resound Like Drums), a collection of poems, Putul counterpoises her tribal world with the 'developed' and modern world. Her poetry questions the whole notion of 'development' and 'progress' in modern civilisation. Her poetry is very musical and full of imagery drawn from nature. They describe the agony of being belittled by an ‘educated’ and ‘cultured’ society and the consequent feeling of helplessness. Her poetry compels the reader to empathise with the angst of a dying ethnic group.

This year, the Ramnika Foundation in association with AITLF honoured 12 tribal artistes from across the country in the state capital of Jharkhand.

Among those honoured was Vijoya Sawiyan, a noted writer in Khasi and English. Her stories are about the life and culture of the Khasis of the northeast. The Family Secret and Other Stories is a collection of 11 short stories about contemporary life amongst the Khasis of Meghalaya. She is currently working on a novel, Men in the Shadows, based on the present situation in the turbulent northeast. Her other published works include three books of translations from Khasi into English -- The Teachings of Elders, Popular Khasi Folk Tales and About One.

Vahru Sonwane is the first modern poet from the Bhil community of Maharashtra. His poems depict the hunger, pathos and struggle of Bhil society. His collection of poems Godhar which has been translated into Hindi is a window into the trials and tribulations of his community.

Bhagwan Das, a lawyer by profession, was born into a dalit family in Himachal Pradesh. He has written 20 books revolving mainly around untouchability, human scavengers, human rights, and social disparity. ‘Main Bhangi Hoon’ (I Am a Scavenger), amongst his best works, is a vivid portrayal of the harsh realities of his community, aglow with his wrath against centuries of social oppression:
“Yes, my family name is Bhangi,” he wrote in Hindi. “Today, I want to narrate my story. My story in my words. Who would have narrated it? Nobody ever wrote anything about us. We are on the last rung of the social ladder – dustbins, where the filth and dirt are disposed.”

“The Foundation has instilled confidence in dalits and tribals,” Bhagwan Das says. “They take pride in their culture and language – this is the Foundation’s biggest contribution.” He has been awarded the Birsa Munda Samman by the Ramnika Foundation this year.

Sushila Takbhore was honoured with the Savitri Bai Phule Samman this year. One of her poems, Gaali (abuse), translated into Hindi, reads:

“Vafa ke naam par, apne aap ko ek kutta kaha ja sakta hai…magar kutia nahi, kutia shabd sunkar hi lagta hai, yah ek gaali hai… kya isliye ki wah stri varg me aata hai…?”

(In the name of loyalty, one may call himself a dog… but not a bitch… the very utterance of the word makes it appear as an abuse… is it because it belongs to the feminine race..?)

Ramnika Gupta’s empathy with the downtrodden began early. “I have been a rebel since my childhood and began to write from the age of 14, when I penned my first poems,” she recalls. “I questioned untouchability and the existence of God, defying the prevalent traditions and customs, particularly on gender and caste.”

Her first book, Geet-Ageet, (1962) is a collection of poetry on the Chinese aggression in the 1960s, nature, love, and patriotism. She began her career as a trade union leader, forming the Koyla Sramik Sangh in 1969 in the coal-belts of south Bihar (now Jharkhand), initially affiliated to Hind Mazdoor Panchayat, and later Hind Mazdoor Sabha. She fought for the cause of coal workers, braving attacks from the private mine owners and contractors, particularly in the Hazaribagh region, during the pre-nationalisation era. She was the CPM’s candidate from Mandu in the 1979 assembly polls, and won.

However she drifted away from politics after she suffered a heart attack in 1987. Also the changing political values made it difficult for her to work and gradually she came closer to the literary world. An ace writer herself, she has 67 books to her credit and is the recipient of the Ganesh Shankar Vidyarthi Award.

Her literary institution is run largely with the support of her children who are settled in the United States and Canada. Her pension of Rs 12,000, and Rs 100,000 free travel that she gets as part of her entitlements as a former MLA, are used for the cause.

Yet, in the twilight of her life, Ramnika Gupta is far from satisfied with her considerable achievements. “There are 600 tribal languages in our country of which only 90 languages have so far been written down. Our Forum aims to scout for more talent from the nooks and corners of the country,” says the indefatigable chronicler of marginal cultures.

By Moushumi Basu , a freelance journalist based in Jharkhand

रमणिका गुप्ता का एकल काव्यपाठ

दिल्ली में राजा जो बैठा
कर्जे से परीशान जान लो
विश्व बैंक की धमकी सुन-सुन
करता छंटनी जाप जान लो
मजदूरों का भी अब भाई-मन
मोटा-सोटा हाल जान लो.

गोल्डन ले लो, गोल्टन ले लो
नित नबाधा पाठ सुनाए
नौकरी पर खतरा है भाई
शर्तों की बौछार लगाए
कब तक बकरी खैर मनाए
लटक रही तलवार जान लो
मोटा-सोटा हाल जान लो
साहित्य अकादमी में एकल काव्यपाठ के दौरान हिंदी की चर्चित कवयित्री रमणिका गुप्ता ने जब सरकार की स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति पर कटाक्ष करते हुए लिखी अपनी कविता मोटा-सोटा हाल जान लो की इन पंक्तियों का पाठ किया तो  हाल में बैठे श्रोता मंत्रमुग्ध हो उठे। इस मौके पर उन्होने करीब दो दर्जन चुनींदा कविताओं का पाठ किया।
 मैंने हवा से कहा
रुको
मैं तुम्हें पढ़ना चाहती हूं
हवा ने कहा-
मैं रुक गई तो
तुम भी रुक जाओगी
फिर पढ़ेगा कौन..(मैंने हवा से कहा)
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पेचगी के पत्ते सा
 डोले है सागर
मन मोरा धुरी-धुरी
होले है पागल
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सूरज के चूल्हे पे
सागर बिराजता
उफन-उफन जात है
देगची में भात सा
उबल-उबल
माड़ गिरी जा रही
घर आंगन की याद है जला रही
मोर मितवा की
याद मोहे आ रही  (पेकची के पत्ते सा)
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 इसी तरह उनकी कविता मैंने हवा से कहा, मैं हवा को पढ़ना चाहती हूं। जड़ें हवा की। मैंने तोड़ी है सदियों से सीखी चुप्पी, तोड़ देती हूं, सब मीडिया का कमाल है, पूर्व निर्धारित ढांचा, बरगद का छाता, पीठ पर बच्चे, विजय का अर्थ जान गए हैं, वे बोलते नहीं थे, पेचकी के पत्ते सा, इतनी जिजीविषा, तुम्हें पाना, द्खो-देखो, पहाड़ जैसा आदमी,  मैं ड्यूटी पर नहीं जाऊंगा रे मितवा, बहस, दर्पण, जीती या वो आदि तमाम कविताओं पर लोग वाह-वाह कर उठे। 

भारतीय समाज में मां सबसे बड़ा वर्जनाओं का पिटाराः रमणिका गुप्ता

स्त्रीकाल के इस अंक के लिए यह यह माकूल समय नहीं है। यह विवादों का काल है, विरोध का काल है. भ्रष्टाचार का काल है, प्रतिरोध का काल है। हिन्दी की सुप्रसिद्ध लेखिका एवं कवयित्री रमणिका गुप्ता ने मेरी ई जोन की बातों पर सहमति व्यक्त करते हुए अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में यह बातें कहीं। अवसर था 24 सितंबर  को शाम चार बजे जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के सभागार में  आयोजित स्त्रीकाल पत्रिका के दलित स्त्रीवादः चुनौतियां और लक्ष्य विशेषांक के लोकार्पण के मौके पर आयोजित परिचर्चा का। रमणिका गुप्ता ने  कहा कि दलित स्त्रीवाद में मैं वाद वाद को उचित नहीं समझती। इसे आंदोलन मानती हूं। दलित स्त्री तीन तरह से शोषित है। दलित होने के कारण, स्त्री होने के कारण, और गरीब होने के कारण। उन्होंने कहा कि भारतीय समाज में मां ही सबसे बड़ा वर्जनाओं का पिटारा है। वही सबसे ज्यादा रोक-टोक निषेध लादती है। साथ ही हमारी भाषा भी हमें गुलाम बनाती है। पति को स्वामी या मालिक पुकारा जाता है। यह गुलामी का भाव है। उन्होंने कहा कि दलित स्त्रीवादी आंदोलन चलाने के लिए हमें व्रत उपवास व पूजा-पाठ छोड़ने होंगे।  इससे पूर्व मेरी ई जोन ने कहा था कि 21 वीं सदी स्त्रीकाल की सदी नहीं यह विवादों और विकृतियों की सदी है। संघर्ष की शुरूआत है। 85 प्रतिशत महिलाएं पुरुषों पर आश्रित हैं। इस परिचर्चा का विषय प्रवर्तन पत्रिका के इस अंक की संपादक अनीता भारती ने किया। अन्य वक्ताओं में सुजाता पारमिता, मीना गोपाल, रजनी दिसोदिया, देवेंद्र चौबे और बजरंग बिहारी थे। इस मौके पर अनीता भारती ने कहा कि यह विशेषांक दलित स्त्री के श्रम और आंबेडकरवाद से प्रेरित मानवतावादी सोच को समर्पित है।
मीना गोपाल ने कहा कि स्त्रीवाद में अबतक मुख्यधारा की स्त्रियों पर काम हुआ है पर अन्य स्त्रियों पर नहीं। डांस बार के बंद होने पर चिंता जताते हुए उन्होंने इसे दलित स्त्री के श्रम से जुड़ा प्रश्न बताया। 

रविवार, 15 सितंबर 2013

हाशिये उलांधती औरत के तीन खंडों का लोकार्पण

स्त्री विमर्श की वृहत परियोजना


रमणिका फाउंडेशन के तत्वावधान में स्त्री विमर्श पर एक वृहत परियोजना पर काम हो रहा है। इसमें 40 भाषाओं में लिखी गई स्त्री संघर्ष की कहानियों को समेटा जा रहा है। इनका दायरा कई कालखंडों तक फैला हुआ है। इनका प्रकाशन युद्धरत आम आदमी पत्रिका के विशेषांकों के रूप में हो रहा है। हाशिये उलांघती औरत शीर्षक की इस श्रृंखला के अंतर्गत हिन्दी कहानियों के तीन खंडों का लोकार्पण 11 सितंबर 2013 को दिल्ली स्थित साहित्य अकादमी के रवींद्र भवन में संपन्न हुआ। लोकार्पण माकपा की जुझारू नेत्री वृंदा करात के हाथों हुआ। इस मौके पर उन्होंने कहा कि इन संकलनों के जरिए महिलाओं की पीड़ाअनुभव और उनके संघर्ष की सृजनशीलता को सामने लाने का काम किया गया है। हिन्दी की सुप्रसिद्ध आलोचक निर्मला जैन ने अपने अध्यक्षीय संबोधन में कहा कि एक वर्ष के अंदर इतनी सारी कहानियों को संकलित किया जाना अपने आप में अद्भुत है। इसमें स्त्री संघर्ष का एक व्यापक और ऐतिहासिक फलक उभरता है। उनका मानना था कि स्त्री विमर्श और उसके संघर्ष को व्यापक संदर्भ में देखने की जरूरत है। दुनिया की अलग-अलग जगहों पर स्त्री संघर्ष के अलग-अलग शेड्स हैं। सबको एक जगह समेटकर कोई एक रूप नहीं दिया जा सकता। युरोपीय देशों में स्त्री संघर्ष के जो मुद्दे हैं वह भारत में नहीं हैं। दूसरी बात यह कि स्त्री विमर्श का अर्थ पुरुषों के प्रति पूर्वाग्रह कदापि नहीं होना चाहिए। फाउंडेशन की अध्यक्ष रमणिका गुप्ता के मुताबिक इस परियोजना पर एक टीम के तहत अनामिकाअर्चना वर्मासबीहा जैदीहेमलता महेश्वरकंचन शर्माशीबा फहमी और विपिन चौधरी के सहयोग से काम किया जा रहा है और अबतक 22 भाषाओं की कहानियां फाउंडेशन के पास एकत्र हो चुकी हैं। इसमें तेलगूमराठीगुजरातीपंजाबी और पूर्वाेत्तर की कहानियों के संकलन तो अब छपने के लिए तैयार भी हो चुके हैं। उनका कहना था कि आज औरत बोलने लगी है। उसके अंदर न कहने का साहस आ चुका है। औरत को अगर मुक्ति चाहिए तो उसे जोखिम उठाना पड़ेगा। हंस के संपादक राजेंद्र यादव ने कहा कि सेक्स स्त्री जीवन का दमनकारी तत्व है इसलिए वही उसकी मुक्ति का साधन भी हो सकता है। स्त्री पुरुष का युग्म ही समाज की इकाई है। इस युग्म के बिना समाज में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। अर्चना वर्मा ने इस श्रृंखला की तैयारी के अपने अनुभवों का जिक्र करते हुए कहा कि जिन 40 भाषाओं की कहानियों को संकलित किया गया है उनमें कई भाषाएं तो ऐसी हैं जिनकी रचना पहली बार सामने आई है। कई भाषाएं अभी बोली के स्तर पर हैं। कुछ ही के पास अपनी लिपि है। लेकिन उन्हें संकलित कर हिन्दी में अनुवाद का काम निरंतर चल रहा है। पुरुषोत्तम अग्रवाल ने कहा कि भारतीय स्त्री विमर्श के राजनैतिक संदर्भ पर सवाल उठाने वालों को जवाब देने के लिए  ये संकलन पर्याप्त हैं।

उन्होंने कहा कि हिन्दी में जब स्त्री विमर्श की चर्चा करते हैं तो विकृत खबरों को सिर्फ  दरिंदगी का पर्याय नहीं बल्कि स्त्री संघर्ष को दमन करने वाला पुरुषवादी प्रयास माना जाना चाहिए। बलात्कार की घटनाएं सिर्फ देह प्राप्ति के लिए नहीं बल्कि औरतों को सबक सिखाने के लिए भी अंजाम दी जाती हैं। यह पुरुष वर्चस्व को स्थापित करने का एक जरिया बन जाता है। अनामिका ने संकलन की कई कहानियों पर विस्तार से चर्चा करते हुए स्त्री की भाषातेवरकथ्य और शिल्प के बदलावों को रेखांकित किया। मैत्रेयी पुष्पा ने अपने वक्तव्य में कहा कि यदि यह संकलन नहीं आता तो वह सुभद्रा कुमारी चौहान या महादेवी वर्मा की कहानी कभी नहीं पढ़ पाती। इन्हें वे सिर्फ कवयित्री के रूप में जानती थीं। उनकी कहानियों को पढऩे पर महसूस हुआ कि उनके जमाने में भी वही आग थी जो आज है। विपिन चौधरी ने कहा कि स्त्रियों के मानवीय अधिकारों को लेकर बहुत सारी बातें इस संकलन की कहानियों के जरिए सामने आई हैं।
कार्यक्रम का संचालन चर्चित कथाकार अजय नावरिया ने किया। इस अवसर पर शब्दांकन के संपादक भरत तिवारीसविता सिंहअशोक गुप्ताज्योति कुमारीरेणु यादवअनिता भारतीश्योराज  सिंह बेचैन तेज सिंहदेवेंद्र गौतम तथा अनेक बुद्धिजीवीसाहित्य प्रेमी और छात्र उपस्थित थे।



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