मोहन राकेश और कमलेश्वर के बाद हिन्दी साहित्य का एक और स्तंभ ढह गया। हंस पित्रका के संपादक राजेंद्र यादव नहीं रहे। 29 अक्टूबर 2013 की रात 12 बजे सांस रुक जाने के कारण उनका देहांत हो गया। वे हिन्दी कथा लेखन के एक स्कूल थे। उन्होंने प्रेमचंद के हंस की परंपरा को विस्तार दिया। उनके सानिध्य में नवोदित कथाकारों की एक पीढ़ी सामने आयी। उन्होंने लेखन के माध्यम से दलित आंदोलन को विस्तार दिया। हिन्दी जगत का दलितों के प्रति नज़रिया बदलने का काम किया। स्त्री-मुक्ति के लेखन को नया आयाम दिया। रमणिका फाउंडेशन और युद्धरत आम आदमी परिवार उनकी मृत्यु से शोक संतप्त है और उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करता है। रमणिका जी उन्हें अपना गुरु मानती रही हैं। राजेंद्र यादव का गुजरना अत्यंत ही पीड़ादायक है लेकिन मृत्यु के बाद उनका ब्राह्मणवादी आडंबर से गुजरना और भी अधिक पीड़ादायक है। जिस व्यक्ति ने जीवन भर ब्राह्मणवादी आडंबरों, अनुष्ठानों और अंधविश्वासों का विरोध किया उसका अंतिम संस्कार ब्राह्मणवादी तरीके से हो यह चिंता ही नहीं शोक का विषय है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें