दिल्ली में राजा जो बैठा
कर्जे से परीशान जान लो
विश्व बैंक की धमकी सुन-सुन
करता छंटनी जाप जान लो
मजदूरों का भी अब भाई-मन
मोटा-सोटा हाल जान लो.
गोल्डन ले लो, गोल्टन ले लो
नित नबाधा पाठ सुनाए
नौकरी पर खतरा है भाई
शर्तों की बौछार लगाए
कब तक बकरी खैर मनाए
लटक रही तलवार जान लो
मोटा-सोटा हाल जान लो
साहित्य अकादमी में एकल काव्यपाठ के दौरान हिंदी की चर्चित कवयित्री रमणिका गुप्ता ने जब सरकार की स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति पर कटाक्ष करते हुए लिखी अपनी कविता मोटा-सोटा हाल जान लो की इन पंक्तियों का पाठ किया तो हाल में बैठे श्रोता मंत्रमुग्ध हो उठे। इस मौके पर उन्होने करीब दो दर्जन चुनींदा कविताओं का पाठ किया।
मैंने हवा से कहा
रुको
मैं तुम्हें पढ़ना चाहती हूं
हवा ने कहा-
मैं रुक गई तो
तुम भी रुक जाओगी
फिर पढ़ेगा कौन..(मैंने हवा से कहा)
----------------------------------------------
पेचगी के पत्ते सा
डोले है सागर
मन मोरा धुरी-धुरी
होले है पागल
------------------
सूरज के चूल्हे पे
सागर बिराजता
उफन-उफन जात है
देगची में भात सा
उबल-उबल
माड़ गिरी जा रही
घर आंगन की याद है जला रही
मोर मितवा की
याद मोहे आ रही (पेकची के पत्ते सा)
---------------------------------------------------
इसी तरह उनकी कविता मैंने हवा से कहा, मैं हवा को पढ़ना चाहती हूं। जड़ें हवा की। मैंने तोड़ी है सदियों से सीखी चुप्पी, तोड़ देती हूं, सब मीडिया का कमाल है, पूर्व निर्धारित ढांचा, बरगद का छाता, पीठ पर बच्चे, विजय का अर्थ जान गए हैं, वे बोलते नहीं थे, पेचकी के पत्ते सा, इतनी जिजीविषा, तुम्हें पाना, द्खो-देखो, पहाड़ जैसा आदमी, मैं ड्यूटी पर नहीं जाऊंगा रे मितवा, बहस, दर्पण, जीती या वो आदि तमाम कविताओं पर लोग वाह-वाह कर उठे।
कर्जे से परीशान जान लो
विश्व बैंक की धमकी सुन-सुन
करता छंटनी जाप जान लो
मजदूरों का भी अब भाई-मन
मोटा-सोटा हाल जान लो.
गोल्डन ले लो, गोल्टन ले लो
नित नबाधा पाठ सुनाए
नौकरी पर खतरा है भाई
शर्तों की बौछार लगाए
कब तक बकरी खैर मनाए
लटक रही तलवार जान लो
मोटा-सोटा हाल जान लो
साहित्य अकादमी में एकल काव्यपाठ के दौरान हिंदी की चर्चित कवयित्री रमणिका गुप्ता ने जब सरकार की स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति पर कटाक्ष करते हुए लिखी अपनी कविता मोटा-सोटा हाल जान लो की इन पंक्तियों का पाठ किया तो हाल में बैठे श्रोता मंत्रमुग्ध हो उठे। इस मौके पर उन्होने करीब दो दर्जन चुनींदा कविताओं का पाठ किया।
मैंने हवा से कहा
रुको
मैं तुम्हें पढ़ना चाहती हूं
हवा ने कहा-
मैं रुक गई तो
तुम भी रुक जाओगी
फिर पढ़ेगा कौन..(मैंने हवा से कहा)
----------------------------------------------
पेचगी के पत्ते सा
डोले है सागर
मन मोरा धुरी-धुरी
होले है पागल
------------------
सूरज के चूल्हे पे
सागर बिराजता
उफन-उफन जात है
देगची में भात सा
उबल-उबल
माड़ गिरी जा रही
घर आंगन की याद है जला रही
मोर मितवा की
याद मोहे आ रही (पेकची के पत्ते सा)
---------------------------------------------------
इसी तरह उनकी कविता मैंने हवा से कहा, मैं हवा को पढ़ना चाहती हूं। जड़ें हवा की। मैंने तोड़ी है सदियों से सीखी चुप्पी, तोड़ देती हूं, सब मीडिया का कमाल है, पूर्व निर्धारित ढांचा, बरगद का छाता, पीठ पर बच्चे, विजय का अर्थ जान गए हैं, वे बोलते नहीं थे, पेचकी के पत्ते सा, इतनी जिजीविषा, तुम्हें पाना, द्खो-देखो, पहाड़ जैसा आदमी, मैं ड्यूटी पर नहीं जाऊंगा रे मितवा, बहस, दर्पण, जीती या वो आदि तमाम कविताओं पर लोग वाह-वाह कर उठे।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें