गुरुवार, 1 जुलाई 2010

पिछले लेख का शेषांश ..............

                                                  मुक्त और स्वतन्त्र स्त्रियाँ

ऐसी भी  स्त्रियाँ हैं जो अपनी अस्मिता और स्वाभिमान के लिए चेतना प्राप्त हैं और वे अपने निर्णय खुद लेने की इच्छा रखती हैं, चाहे वे उनकी देह के बारे में हो या उनके रिश्तों, संबंधों, परिवेश के बारे में। वे स्वावलंबी बनकर आत्मनिर्भर होकर रहना चाहती हैं और अपनी कुव्वत पर समाज में अपना स्थान बनाने की तमन्ना रखती हैंङ्, किसी पर निर्भर या आधारित होकर नहीं। इसके लिए वे ज्ञान  भी अर्जित करती हैं और संघर्ष पर भी उतारू हो जाती हैं।
ऐसी स्त्रियाँ जो स्वतंत्र हो  चुकी हैं, अपनी देह, स्थिति व योग्यता से पूरी तरह अवगत होती हैं। वे अपने निर्णय भी खुद लेती हैं। वे महत्वाकांक्षी भी होती हैं और हर अवसर का फायदा उठाने में सक्षम भी। वे बिना अपराधबोध के मर्दों के साथ होड. लगा सकती हैं। वे अपनी मर्यादाएं खुद तय करती हैं, चाहे वे देह के संदर्भ में हों या परिवार के दायरों, रिश्तों की गरिमा, अथवा तथाकथित मर्यादा के संदर्भ में। वे देश के नागरिक होने की भूमिका निभाने में पीछे नहीं रहतीं। समाज के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, वैणानिक, तकनीकि व सांस्कृतिक  क्षेत्रों  में स्त्री ने प्रवेश करके यह सिद्घ कर दिया है कि वह सपने सच करने में सक्षम हैं। भले ऐसी स्त्रियों  की संख्या कम है लेकिन वे समाज के समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत करने के साथ साथ समाज के लिए प्रेरणा का स्रोत भी होती हैं। कल्पना चावला हो या इंदिरा नुई अथवा लक्ष्मी सहगल या अनेकों ऐसी नाम अनाम योग्य, कुशल व बहादुर स्त्रियाँ, स्त्रियों की मुक्ति के रूप में हमारे सामने मौजूद हैं।

                                                    समाजसेवी स्त्रियाँ

प्रतिबद्घ समाजसेवी स्त्रियों का ऐसा एक वर्ग है, जो अपने क्षेत्रा में बड़े से बड़ा  त्याग करने को उद्यत रहता हैं। दरअसल उनकी सत्ता का स्रोत व आधार उनकी लगन, त्याग, क्षमता व जनता तथा जनता के सरोकारों से जुडाव  होता है। त्याग की अपनी भी एक शक्ति और सत्ता होती है, जिससे जनता का विश्वास अर्जित होता है। ऐसी  स्त्रियाँ  मानस बदल सकती हैं, दृष्टि  बदल सकती हैं और व्यवस्था में भी बदलाव ला सकती हैं। हॉलाँकि ऐसी स्त्रियों पर प्रायः यह आरोप लगता रहता है कि वे अपने घर-बार व समाज की परवाह नहीं करतीं। आरोप पर आरोप सहते हुए भी वे अपने मिशन के तहत आगे बढती जाती हैं। ऐसी स्त्रियाँ अपने जीवन में भले परिवार व संतान से उपेक्षित हों लेकिन वे समाज के लिए वरदान बन जाती हैं। यह जरूरी नहीं कि ऐसी स्त्रियाँ, स्त्री- मुक्ति  की झण्डाबरदार हों लेकिन वे घर की चौहद्दी पार कर, रूढियां और परम्परा छोड कर सामाजिक सरोकारों से जुड़ी होती हैं। इसलिए वे स्वतंत्र रूप से अपने बारे में निर्णय लेती हैं। वे स्त्री - पुरुष समानता में विश्वास रखती हैं। वे चकाचौंध से दूर अपने काम को अंजाम देती रहती हैं। समाज की कटु आलोचना या मीडिया की उपेक्षा अथवा प्रशंसा उन्हें न बाधित करती है, न विचलित और ना ही उत्साहित। अपने दायरे में ऐसी स्त्रियाँ बदलाव की वाहक बन जाती हैं, भले ही ये दायरा छोटा ही क्यों  न हो। दरअसल खोज इनकी होनी चाहिए।

                                      उद्योगघरानों व नौकरशाही में स्त्रियाँ

उद्योग घरानों में बिजनेस टाइकून व सफल नौकरशाह बनने की अभिलाषा पालने वाली स्त्रियाँ प्रबन्ध व व्यापार कुशल तो होती ही हैं, वे श्रम और ज्ञान को साधने में भी कोई कोर कसर नहीं छोड.तीं। अनुशासन भी उनका एक सूत्रीय  मन्त्र होता है। वे व्यवहारिक बनकर अपना अभीष्ट हासिल करती हैं। परिवार की उपेक्षा और कभीकभी कटाक्ष भी सहती हैं। पर वे न तो पीछे हटती हैं ना ही अपने कदम रोकती हैं। अपनी र्निधारित व्यावहारिक समझ व प्रबन्धकीय योग्यता के तहत वे बढती जाती हैं। अपने फैसले खुद लेती हैं और परिवार में भी हस्तक्षेप करने का साहस रखती हैं। भले वे मुक्ति का नारा नहीं देती हों लेकिन स्वयं को मुक्त मानती हैं।


                                                           राजनीति में स्त्रियाँ

राजनीति के क्षेत्र में आने की आकांक्षा पालने वाली स्त्रियों को बहुत ही अधिक प्रतिरोध सहना पड़ता  है। परिवार, संतान, समाज, सभी को त्याग कर, वे अपना स्थान या खेमा बनाती हैं। हालांकि वर्जनाएं उन्हें रोक नहीं सकतीं। ऐसी स्त्रियों को भी कभी कभी समझौता करने को मजबूर होना पडता है। ऐसी राजनैतिक स्त्री उस सही व माकूल समय का इन्तजार करती है, जब वह सारे अवरोधों को लांघकर शिखर पर पहुंच जाये और खुद ऐसी सत्ता हासिल कर लें कि जो उसे लांछित, हतोत्साहित या अनचाहे सम्बन्धों के लिए मजबूर करते हैं  उसे  वह खुद से रिजेक्ट  कर सके।
वह अपनी सत्ता का उपयोग किसके लिए करती है अपने या अपने परिवार के लिए या जन के लिए, जिसने उसे वह शक्ति दी  दी यह विवाद का विषय हो सकता है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि शक्तिशाली  हो जाती हैं और अपने निर्णय खुद लेने ही नहीं लगतीं, दूसरों के लिए भी निर्णय करने की कुव्वत पैदा कर लेती है। शुरू में भले इन स्त्रियों को बदनामी की हर गली से गुजरना पड़े पर इनकी जिजिविषा, संघर्ष की शक्ति सहनशक्ति व धैर्य, राजनैतिक रणनीति, कार्यनीति व डिप्लोमेसी की समझ व थेथरपन की क्षमता अंततः इन्हे एक ऐसे मुकाम पर पहुँचा देती है कि शत्रु  भी उनका लोहा मानने लगता है और समर्थन श्रद्घा में बदल जाता है। वे अपने धैर्य, साहस व प्रतिबद्घता के चलते आदर की पात्र बन जाती हैं। प्रतिबद्घ राजनैतिक स्त्रियाँ त्याग में भी पीछे नहीं रहतीं।

हकीकत तो यह है कि समाज में मची प्रतिद्वंदिता  व प्रतिस्पर्धा की इस होड. में औरत को औरत समझ कर मदद करना भी प्रायः पसन्द नहीं किया जाता, खासकर ऐसी स्त्री का, जो प्रतिद्वन्द्वी बनने का सपना पालती हो या क्षमता रखती हो। ज्यादातर लोग, जिसमें स्त्रियाँ भी शामिल हैं, उसे लांछित ही करते रहते हैं। ऐसी स्त्रियाँ चाहे वे राजनीति के क्षेत्र में हों या समाजसेवा अथवा बिजनेस में, जब तक सेक्स  के मामले में अपराधबोध पालतीं रहती हैं उनका शोषण जारी रहता है। जब वे आत्मदया व अपराधबोध की ग्रन्थि को झटक देती हैं, तो वे अपनी देह का इस्तेमाल अपनी मरजी से करने में सक्षम हो जाती हैं। अपनी देह का इस्तेमाल कब और कैसे करना है यह वे अपनी राजनीति और रणनीति के तहत तय करने लगती हैं। कभी कभी उन्हे समझौते भी करने पडते हैं खासकर देह को लेकिन उन्हें इन समझौतों का पूर्वाभास हो ही जाता है। ऐसे समय नैतिकता के प्रश्न को वे खुद ही नज़रंदाज़  कर देती हैं। और हर स्थिति से जूझने या रूबरू होने को तैयार हो जाती हैं। जैसे एक पुरुष अपनी रणनीति में अपने शारीरिक बल को शामिल करके अपनी रणनीति बनाता है, ठीक वैसे ही महत्वाकांक्षी स्त्री को भी अपनी रणनीति बनानी होती है, चाहे वह देह के संदर्भ में ही क्यों न हो। उसे देह की रक्षा या देह के उपयोग, दोनों  से देह को केन्द्र में रखना पडता है। विडम्बना यह है कि सत्ता के लिए महत्वाकांक्षी पुरुष जो भी करे, वह कलंकित नहीं होता लेकिन महत्वकांक्षी स्त्री  को हर कदम पर कलंक झेलते हुए आगे बढना होता है। उसे लडना पडता है बल्कि यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि उसे मर मर कर जीना होता है  जिंदा रहने के लिए जद्दोजहद करनी होती है। समाज व राजनीति में स्वीकृति मिलने व प्रस्थापित होने के बाद वे अपना या अपनी देह का इस्तेमाल या शोषण बन्द करने की स्थिति में आ जाती हैं। राजनीति में खासकर बुर्जुआ राजनीति में नैतिकता एक निरर्थक शब्द  बन चुका है खास कर पुरुषों के संदर्भ में। जब स्त्री यह समझ जाती है तो वह अपनी रणनीति आसानी से बना लेती

1 टिप्पणी:

डा. महाराज सिंह परिहार ने कहा…

aalekh vastav men sachchai ko bayan karta hai. aurat ko apni deh ki azadi honi chahiye. pragati ke liye jab purush sare hathkande apna sakta hai to aurat ko yah adhikar kyon nahin ki vah apni deh ka kaise or kab upyog kare.

www.vichar-bigul-blogspot.com


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