आज बाजारवाद का युग है। यह सर्वविदित है कि स्त्रियों का शोषण बाजार भी करता है। आजकल अधिकांश विज्ञापन स्त्री-केन्द्रित होते हैं । स्त्री की कोमलता, उसका गोरापन, उसकी नजाकत व नाजुक देहयष्टि को तरहतरह के मालों समानो का प्रतीक बनाकर अखबारों, रेडियो व टेलीविजन चैनलों पर बेचा जाता है। मोटापा किसी के लिए भी ठीक नहीं, लेकिन मोटेपन से निजात पाने हेतु जिस स्त्री की तस्वीर टेलीविजन व अखबार में तुलनात्मक ढंग से पेश की जाती है, वह जरूर ३६ .२४ . ३६ की ही होती है। कमर पतली! बस! ऐसी स्त्रियाँ सामान का प्रतीक बन कर प्रस्तुत की जाती हैं।
घर में रहने वाली स्त्री सुघढ. देहयष्टि को लेकर दिन भर अपने परिवार, समाज की जिम्मेदारियां निभाती है, पर समाज की सौंदर्य कसौटी, जो पुरुषों ने ही स्त्रियों के लिए निधार्रित की है पर खरा उतरने के चक्कर में वह अपनी देह को निकम्मा भी बना लेती हैं। मुझे अपनी भाई की बेटी का किस्सा याद है, जिसने डायटिंग करते करते ऐसी बीमारी सहेज ली कि वह चलने फिरने के काबिल भी नहीं रही। पति गोरा था वह सांवली थी, हॉलांकि सुंदर थीसुडौल , सुघड , कसी कसी देह वाली चुस्त दुरुस्त लडकी थी! पति के लिए नाज़ुक , नफीज़ बनने के चक्कर में पड गई और बीमार हो गई।
बाजार से प्रभावित फैशनपरस्त, माडल अथवा सेलीब्रेटी स्त्रियाँ
बाजारवाद से स्त्रियाँ स्वंय भी इतनी प्रभावित हो जाती हैं कि पुरुषवाद के षड.यंत्र को न समझने के कारण, वे केवल पुरुष की नजरों में सराहनीय बनने वाली गुडिया बन कर रह जाती हैं। दरअसल ऐसी स्त्रियों पर सदैव पुरुष की कसौटी पर खरा उतरने का दवाब आतंक की हद तक छा जाता है। विज्ञापन का चक्कर और पुरुष निर्धारित सौन्दर्य की कसौटी उन्हें किस हद तक ले जाती है इसका ज्वलंत उदाहरण है, ६ दिसम्बर २००९ के जनसत्ता में छपी एक खबर है। खबर थी कि एक स्त्री की , जो कभी १८ वर्ष की आयु में ही विश्व सुंदरी घोषित हो चुकी थी, ने ३४ वर्ष की आयु होने पर पुरुष निर्धारित सौंदर्य की कसौटी ३६. २४. ३६ के आधार पर अपने शरीर को प्लास्टिक सर्जरी के लिए सौंप दिया और मर गई। इस भटकाव से मुक्ति भी आवश्यक है। ऐसी स्त्रियाँ भी कभी कभी स्त्री मुक्ति की मुहिम की बाधक बन जाती हैं।
ये स्त्रियाँ भी हजारों में एक बनने का सपना पालती हैं और उसे साकार करतीं है। शुरू में बाजार उनका उपयोग करता हैङ्कलेकिन शिखर पर पहुंचने पर ये स्त्रिांया बाजार का उपयोग करने लगती हैं और बाजार को अपना उपयोग करने नहीं देती।
ऐसे हजारों में एक का आभास पैदा करने की भावना पुरुषों में भी व्याप्त होती है। इसे यश प्राप्ति की ग्रन्थि से जोड़ा जा सकता है, लेकिन मेरा मानना है कि स्त्री के संदर्भ में हजारों में एक होने की कसौटी, स्त्री अपनी नज़र अपनी सुविधा व जरूरत के अनुसार तय करे, न कि पुरुष व पुरुषों के नजरों में अच्छी लगने के लिए। वह एकट्रेस बने या मॉडल, यह निर्णय वह खुद ले। अपनी देह का इस्तेमाल होने दे या न होने दे अथवा उसे अपनी देह का इस्तेमाल कैसे करना है, इसका अधिकार केवल स्त्री को ही होना चाहिए।
यूं हजारों में एक बनने की लालसा या ललक वीरांगनाओं, लेखिकाओं राजनैतिक स्त्रियों, रंगमंच व फिल्मों की अभिनेत्रियों, बिजनेस टाइकूनों व समाज सेविकाओं या एक्ट्रेस में भी होती है लेकिन यह ललक वे अपनी कार्य कुशलता, निपुणता या लगन में होड. लगा कर हासिल करती हैं केवल रूप या पुरुष की तरह धन या बल से नहीं। दुर्भाग्य यह है स्त्री होने के कारण उसकी हजारों में एक होने की लालसा या इच्छा को स्वार्थ या अनैतिक माना जाता है, लेकिन पुरुष पर यह कलंक नहीं लगता। जबकि सत्य यह है कि ऐसी लालसा या इच्छा, मानव स्वाभाव का एक अनिवार्य मनोवेग है। नैतिकता के दायरे में भी अभी तक यौन के संदर्भ में ही मनुष्य के चरित्रा को परखा जाता है विशेषकर स्त्री के चरित्र को, जबकि दुनियादारी, ईमानदारी, वफादारी, देशप्रेम, सत्यवादिता, संवेदनशीलता, सहयोगीप्रवृत्ति, रचनात्मक सोच व मानवीयता भी नैतिकता के दायरे में आते हैं। यौन या सेक्स मानवीय प्रवृत्ति है बाकी सब वे गुण हैं, जिन्हें सभ्यता के विकास के दौरान मनुष्य ने अर्जित किया है। फिर चरित्र का दायरा केवल सेक्स वह भी केवल स्त्री की देह से जोड़ कर ही क्यों देखा जाता है। उसे ही क्यों प्रमुखता दी जाती है। दरअसल ये संकीर्ण व संकुचित सोच है।
सांस्कृतिक मंचों फिल्मों, सोसाइटियों व ङ्कलबों की स्त्रियाँ
सांस्कृतिक स्तर पर मण्डल, फिल्म व रंगमंच अभिनेत्रियां अथवा सोशलाइटस जैसी कुछ ऐसी स्त्रियाँ भी होती हैं जो बाजारवाद से पूरी तरह प्रभावित होती हैं। वे खुद को बाजार के अनुकूल बनाकर, उससे लाभान्वित होती रहती हैं। ये स्त्रियाँ पुरुष और बाजार की दुनिया के बाहर निकल कर अपनी स्वतन्त्रा सत्ता कायम नहीं कर पातीं, चूंकि बाजार पुरुषों पर आधारित है, उनकी अपनी एक दुनिया और सोसाइटी जरूर अलग से बन जाती है। वे सेलिब्रिटी बन जाती हैं। जनता उनकी फैन होती है, उनपर मुग्ध होती है। अपने ऐश्वर्य और प्रचुर धन के चलते साधारणतया वे जनता के सरोकारों से जुड. नहीं पातीं। (शबाना आजमी और कतिपय अपवाद छोड कर) समाज चाहकर भी अपनी वर्जनाएं उनपर लाद नहीं सकता। प्रायः मॉडल, फिल्म अभिनेत्रियां, सोशलाइट महिलाएं इसी श्रेणी में आती हैं। इसके बावजूद वे हतोत्साहित नहीं होतीं, भले वे बाजार से लाभ लेकर अपना विकास करती हैं। वे अलग से अपना व्यक्तित्व बनाती हैं। आराम से जीती हैं। वे व्यवहारिक होती हैं, व्यवहारकुशल भी और चतुर भी, मोहक भी। नैतिकता व सिद्घान्त अथवा सही गलत की परिभाषा को वे अपने अनुरूप लचीला बना कर इस्तेमाल करती हैं। फलतः एक स्थिति ऐसी आती है, जब समाज भी उन्हें स्वीकार कर आदर देने लगता है। नैतिकता की ग्रंथि उन्हें नहीं कचोटती। दरअसल समाज की स्मृति भी कमजोर होती है और वह नैतिकता भी अपनी सुविधा अनुसार बदलता रहता है। जो लोग उसकी याददाश्त को भूलने और नैतिकता के ढीले होने की अवधि को पार कर लेते हैं, उनका ये समाज कुछ भी नहीं बिगाड सकता। जो समाज से डरता है, समाज उन्हीको डराता है और सजा भी देता है ।
सुखद यह है कि बातबात पर नैतिकता की धौंस जमाने वाला तबका भी ऐसे वर्ग के सामने अपनी नैतिकता की गांठ ढीली करके देखने लगता है।
1 टिप्पणी:
आपकी प्रस्तुति सोचने पर मजबूर करती है।
………….
दिव्य शक्ति द्वारा उड़ने की कला।
किसने कहा पढ़े-लिखे ज़्यादा समझदार होते हैं?
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