शुक्रवार, 21 मई 2010

हम हजार फूल खिलने ङ्कयों नहीं देते! २०.५.१०

रमणिका गुप्ता


आदिवासी भाषाओं की प्रवॐत्तिा लोकतांत्रिाक, समतामूलक, स्वातंत्राताप्रिय और भाईचारा या बहनापे से युङ्कत है। ये भाषाएं किसी को श्रेष्ठ या नीचा नहीं दर्शातीं। इनके प्राकॐतिक न्याय और सामाजिक न्याय की भावना भरपूर मात्राा में भरी है और सबको अपनी बात कहने का अट्ठिाकार भी समाहित है। उनकी भाषा में निजि संपत्तिा जुटाना, जमाख.ोरी करना, ठगना या छद्म आदि के आयाम नहीं हैं। अंग्रेजी में साम्राज्यवादी रुझान का होना अंग्रेजों के उपनिवेशवादी चरित्रा और राजतंत्रापरक व्यवस्था का नतीजा है। विडम्बना तो यह है कि हिन्दी जैसी आम आदमी की भाषा या भारत की अन्य क्षेत्राीय भाषाएं भी वर्चस्ववाद, श्रेष्ठतावाद, सम्राज्यवाद और कट्टरतावाद फैलाने वाली रही हैं। उनमें अंधविश्वास और चमत्कार की बू भी आती है। हमारी ये भाषाएं प्रायः स्त्राीविरोधी शद्बों से भरी पड ी हैं। दुनिया की सभी गालियां स्त्राी को लेकर हैं। यह भारत की ब्राह्मणवादीमनुवादी श्रेष्ठता आधारित सामन्ती संस्कॐति के प्रभाव के चलते ही है। भारतीय संस्कॐति की आस्थाएं चमत्कारयुङ्कत हैं। लेकिन प्रकॐति में कहीं कोई चमत्कार नहीं होता, सौंदर्य या विचित्राता होती है। आदिवासी आस्थाएं प्रकॐति की वास्तविकताओं के गिर्द घूमती हैं। उसमें कल्पना तो है पर चमत्कार नहीं। उनके मिथकों में, उनका आकाश कहीं पिता है, तो कहीं प्रेमी भी। उनकी धरती कहीं मां है और कहीं प्रेमिका! सूर्य और चंद्रमाङ्कधरती और आकाश के बच्चे हैं।
सांताली भाषा तो और भी अद्‌भुत है। उसमें क्रिया से ही पता लग जाता है कि वह पशु, पक्षी, मनुष्य या जड.वस्तु है। पक्षी के लिए 'ऑप*, मनुष्य हेतु 'दुड घप*, पशु हेतु 'बुरूम* और सरीसॐप के लिए 'पिटी* क्रिया प्रयुङ्कत होती है। हिन्दी में 'यह* और अंग्रेजी में 'दि* निर्जीवसजीव दोनों के लिए प्रयुङ्कत होता है, लेकिन संताली में निर्जीव और सजीव का भी अंतर किया जाता है। वहां निर्जीव हेतु 'नोआ*, सजीव हेतु 'नोई* प्रयुङ्कत होता है। इस प्रकार भाषाई स्तर पर पूरी सोच का अंतर है। ऐसे हमारी मुख्यधारा की भाषाएं कहीं दलित बन जाती हैं तो कहीं सवर्ण, कहीं सर्वहारा हैं तो कहीं कारपोरेट जगत की उद्घोषक, चूंकि ये भाषाएं वर्चस्ववादी प्रवॐत्तिा की पोषक हैं और उपनिवेशवाद का हथियार भी हैं। अंग्रेजी विदेशी उपनिवेशवाद का हथियार थी तो हिन्दी या क्षेत्राीय भाषाएं आदिवासी क्षेत्राों के आन्तरिक उपनिवेशवाद का औजार हैं। इसलिए उनमें शासन सत्ताा की गन्ध भरी हैङ्कभाईचारे की महक कम है। अंग्रेजों ने अपनी भाषा हम पर थोपी और हम अपनी भाषाएं आदिवासियों पर थोप रहे हैं लेकिन आदिवासी अपनी भाषाएं थोपते नहीं। वे मूलतः लोकतांत्रिाक हैं। हम हजार फूल खिलने ङ्कयों नहीं देते? भाषाविमर्श के मूल में यही प्रश्न महत्वपूर्ण हैङ्कजो जवाब खोजता है।



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भाषाएं मरती नहीं, मार दी जाती हैं २१.०५.२०१०

रमणिका गुप्ता



भाषा निस्संदेह संप्रेषण का एक जोरदार माध्यम है किन्तु यह संप्रेषण केवल संवाद ही नहीं होता बल्कि विचारों का वाहक भी होता है। ये विचार उन भाषाभाषियों के समग्र लोक, सामाजिक, सांस्कॐतिक, रीतिरिवाज., स्थानीय विशिष्टताओं और उनकी बहुरंगी आभाओं एवं गतिविधियों को भी पूर्णतया प्रतिबिम्बित करते हैं। दूसरी ओर भाषाई संकीर्णता की वजह से कई छद्म अस्मिताएं परस्पर टकराने भी लगती हैं, जिससे समाज के विकास में गतिरोध उत्पन्न होता है। भाषा के आधार पर राज्यों से लेकर राष्ट्रों का विवाद और बंटवारा इतिहास में दर्ज है।

राज्यशङ्कित, जनसंख्या या उपयोगिता जहां किसी भाषा को पुष्ट करती हैं, वहीं वह उसकी वर्चस्वादी प्रवॐत्तिा को भी हवा देती है। इससे भाषा का विस्तार तो होता है किन्तु इसी प्रवॐत्तिा के कारण कई अन्य भाषाओं का स्वाभाविक विकास भी रुक जाता है। आज गलत नीतियों, मुख्य भाषाओं की वर्चस्ववादी प्रवॐत्तिायों तथा अपनी मातॐभाषा के अनुपयोगी हो जाने के कारण, उसे त्यागने की प्रवॐत्तिा बढ रही है और कई भाषाएं लुप्त होने के कगार पर पहुँच गई हैं या लुप्त हो रही हैं, खासकर आदिवासी या अपरिगणित भाषाएं। भाषा के लुप्त होने का मतलब होता है उस भाषाभाषी समाज की संस्कॐति, रीतिरिवाज , कर्मकाण्ड और अस्मिता एवं अस्तित्व का नष्ट होना!

अभी हाल में पिछले दिनों २६ जनवरी २०१० में अंडमान की 'बो* भाषा बोलने वाली बोआ नामक ८५ वर्षीय अंतिम महिला की मॐत्यु हो गयी। आज अंडमाननिकोबार में १० भाषाएं लुप्त होने की कगार पर हैं। ऐसे समय बोआ की मॐत्यु केवल 'बोआ* की मॐत्यु नहीं, ना ही ये केवल 'बो* भाषा की समाप्ति है, बल्कि ये पिछले ६५ हजार वर्षों की मानव सभ्यता की भाषिक धरोहर और जीवनशैली और एक आदिम संस्कॐति की समाप्ति है। न जाने कितनी भाषाएं हर रोज लुप्त हो रही हैं। उनका न कोई मातम मनानेवाला है और न गानेवाला। बाबुई और अर्जुन जाना ने इस ८५ वर्षीय बोआ (अंडमानी महिला) की मॐत्यु पर कविता की निम्न पंङ्कितयां लिखी हैंङ्क
''ङ्कया हुआ अगर भाषा खत्म हो गयी


वह अपने झूठ और सच के साथ दफन हो गयी

शद्ब नहीं रहे, दुनिया की खातिर

कहीं कोई नहीं रोया।**

कहावत है चार कोस पर बोली बदले, आठ कोस पर पानी। विनाश और सॐजन चलता रहता है, भाषा रूप बदलती है, तो विकास होता है लेकिन भाषा लुप्त होती है, तो उस भाषा के बोलने वालों, सरकार और समाज सबकी उपेक्षा नज.र आती है। लगता है भाषा मरी नहीं मार दी गयी।

पिछले दिनों गुजरात के बड ोदरा में आदिवासी भाषाओं पर 'भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर* द्वारा एक वॐहत्‌ सम्मेलन का आयोजन हुआ था, जिसमें मैंने भी शिरकत की थी। उस आयोजन से जारी एक परिपत्रा के अनुसारङ्क''दुनिया के १६ फीसदी आबादी वाले हमारे देश में १९६१ की गणना अभिलेख के आधार पर कुल १६५२ मातॐभाषाएं हैं, जिनमें १०३ विदेशी मातॐभाषाएं हैं। एक अनुमान के अनुसार वर्तमान में दुनिया भर में बोली जानेवाली लगभग ८००० भाषाओं में लगभग ९० फीसदी भाषाएं सन्‌ २०५० तक विलुप्त होने की कगार पर होंगी।**

उसी भाषाकुंभ में यह भी उजागर हुआ कि केवल कम बोली जानेवाली भाषाओं की संख्या ही दिन प्रतिदिन नहीं घट रही बल्कि हिन्दी जैसी अधिक बोली जानेवाली भाषाओं की भी यही स्थिति है। ''इसी का परिणाम है कि कभी बिल्कुल न समझी जाने वाली अंग्रेजी भाषा, अब हमारे देश में सबसे अधिक प्रयोग की जाने वाली ३५ भाषाओं में शामिल हो गयी है।**

आदिवासी भाषाओं की तो और भी बुरी स्थिति है। चूंकि वे न तो पाठ्‌यक्रम में शामिल हैं और न ही आदिवासी बच्चों की पढ ाई उनकी मातॐभाषा में करायी जाती है। फलतः स्कूलों में आदिवासी ड्रॉपआउट बच्चों की संख्या अधिक होती हैङ्कजिसके चलते वे शिक्षा से वंचित रह जाते हैं।
चूंकि आदिवासी भाषाएं रोजगार उपलब्ध नहीं करातीं, इसलिए उनके बोलने वाले हीनभावना से ग्रस्त हो जाते हैं। वे अपनी भाषा बोलने में शर्म महसूस करने लगते हैं और उसे त्याग देते हैं।


भारी संख्या में विस्थापन के कारण या रोजगार की खोज में आदिवासी दूसरे प्रदेशों में पलायन कर जाते हैं। रोजगार की जरूरत और क्षेत्राीय लोगों से संवाद के लिए उन्हें दूसरी भाषा सीखनी ही पड.ती है और वे सीखते हैं। परिणामस्वरूप प्रायः हर आदिवासी द्विभाषी हो जाता है। अधिक भाषाएं सीखना अच्छी बात है लेकिन मजबूरीवश दूसरी भाषा अपनाना और अपनी भाषा त्यागना, उसकी अपनी मातॐभाषा को ही मार देता है। इसका ज्वलंत उदाहरण हैङ्कझारखंड के क्षेत्राों में, विशेषकर रांची के क्षेत्रा में उरांव लोगों का कुड ुख भाषा के बदले नगपुरिया बोलना शुरू कर देना और दक्षिण के चारों राज्योंङ्ककेरला, आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु के आदिवासियों द्वारा इन राज्यों की क्षेत्राीय भाषाओं में ही संवाद करना या लिखनापढ ना। वे अपनी मातॐभाषाएं गंवा चुके हैं।

इन भाषाओं के लुप्त होने का एक और बड ा कारण हैङ्कआदिवासी क्षेत्राों में कुकुरमुत्तो की तरह अंग्रेज ी माध्यम स्कूलों का खुल जाना। इससे भी आदिवासी भाषाओं को क्षति पहुँच रही है। अंग्रेज ी पढ ना बुरा नहीं लेकिन अंग्रेज ी का जुनून आदिवासियों में अपनी मातॐभाषा त्यागने की प्रवॐत्तिा पैदा कर रहा है, जिससे केवल उनकी भाषा ही खत्म नहीं हो रही बल्कि उनका अस्तित्व भी खत्म हो रहा है। इस प्रकार ये स्कूल उनके आदिवासीपन को ही मार देते हैं, जिससे उनकी भाषा, संस्कॐति व जीवनशैली भी शनैः शनैः समाप्त होने लगती है।



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शनिवार, 8 मई 2010

सरकार मैला उठ्वाने वालो को सजा क्यो नही देती

प्रकाशनार्थ      
                                                                                   दिनांक - १-५-२०१०

सरकार मैला उठ्वाने वालो को सजा क्यो नही देती  

रमणिका फाउनडेसन   एवम सफाई कर्मचारी आन्दोलन द्वारा दिनांक ३० अप्रिल २०१० को भारतीय साहित्य अकादमी सभागार मे 'युद्धरत आम आदमी' के विशेषांक 'सृजन के आइने मे मलमुत्र  ढोता  भारत'   एवम  'विचार कि कसौटी पर'  पुस्तक के लोकार्पण समारोह मे विशिष्ट अतिथि - बरिष्ठ साहित्यकार एवम 'हँस' के सम्पादक श्री राजेन्द्र यादव ने दृष्टान्त देते हुए कहा "उपर से नीचे देखने पर एक समानता दिखाई देती है परन्तु जैसे -जैसे  नीचे उतरते हैं , हमारे सामने बिभिन्न्ताएँ नजर आने लगती है / इन विविधताओं को नजदीक  से देखने का पायोनियर  काम रमणिका  जी ने   इस विशेषांक के माध्यम से किया है / दरअसल हम शारीरिक एवम भौतिक मलमुत्र ढोने से ज्यादा शास्त्रो का मलमुत्र ढो रहे हैं /

     साहित्य अकादमी  के  उपाध्यक्ष   विशिष्ट अतिथि एस. एस. नूर ने कहा  "दरअसल शास्त्रों  ने हमारे अवचेतन मन मे जाति और छुवाछुत को कुट कुट कर भर दिया है / अवचेतन से इसे मिटाना होगा / पन्जाब मे सभी कीर्तन करने वाले दलित होते हैं / कीर्तन होने टक उन्हे बराबर माना जाता है और फिर वे अछुत हो जाते हैं / रामानन्द कि हत्या के बाद पन्जाब मे रविदासियों ने कहना शुरु कर दिया है कि वे सिक्ख नही हैं / आज पन्जाब मे दलित खुद को आदि- धर्मी घोषित कर रहे हैं / उन्हे लगता है कि मुगलो के बिरुद्ध बहादुरी के इतिहास में वे किसी से कम नहीं रहें  है / लेकिन जाट सिक्खों ने इस तथ्य को छिपाया / आज वे बेरोजगार हो रहे  हैं  / 

रमणिका फाउनडेसन की अध्यक्षा रमणिका गुप्ता ने अपने अध्यक्षीय भाषण मे कार्यक्रम का उद्धेश्य बताते हुए कहा कि दलित अभी भी हिन्दु ही हैं / वह जाति से उबरे नही हैं / जो सदियों से गाली खाता  आया है , कभी बोला नही है , अब वही कलम उठाकर अपनी बात लिख रहा है / मैला ढोने वाले समुदायों का अम्बेडकर के साथ न जुड़ने का एक कारण दलित आन्दोलन द्वारा उपेक्षा भी है /  अपनी बात को आगे बढाते हुए उन्होने कहा कि उनका लेखन रोने से शुरु होकर आक्रोश तक पहुंचा है / रोने और आक्रोश कि कोइ लय नही होती है / जँहा तक साहित्य के क्लासिकल की बात है तो 'सच' किसी भी साहित्य से बडा होता है / जो मैला उठ्वाते है उन्हे आज तक सरकार के सजा नहीं  दी, जबकि यह प्रतिबन्धित है /


विशेषांक की अतिथि सम्पादक सुशीला टाकभौरे ने इन अंको को तैयार करने से जुड़े अपने   अनुभव बांटे और कहा कि "इस दोनो विशेषांको का उद्धेश्य है इन जातियो में चेतना उत्पन्न करना, गुलामी का एहसास कराना, ब्राह्मणबाद से सावधान होना , मानव गरिमा और स्वाभिमान का  एहसास कराना, दलित जातियों मे एकता लाना तथा वाल्मिकी एवम सभी सफाई कर्मी जातियों किई समस्याओ से समाज को परिचित करना ताकी उनकी मानसिकता बदले /


रमेश चन्द्र मीणा ने अपने आलेख में कै महत्वपूर्ण बिन्दुओं को छुआ / उन्होने कहा 'मल - मुत्र   ढोता भारत' किसी भी सामान्य समझ रखने वाले आदमी के लिए शर्म कि बात है / लोकतंत्र  के आधी सदी के बाद भी अगर ऐसी अमानवीय प्रथा इस देश मे चल रही है तो यह शर्मनाक न केवल एक व्यक्ति व समाज के लिए है अपितु पुरे देश के लिए है / सरकार को जगाने के लिए 'युद्धरत आम आदमी ' की उँची आवाज कि जरुरत है / ये दोनो अंक इस अर्थ मे सार्थक, कारगर और मुकम्मल हैं / कोइ समाज अपनी मर्जी से किसी दुसरे समाज का मल -मुत्र ढोता रहे बिना किसी ना - नुकर, के यह समझ से परे तो है ही, साथ-ही-साथ समाज बिशेष की क्रुरता, अमानवीयता को सामने लाता है / समाज की विसंगति को प्रगट करने वाला साहित्य परम्परागत साहित्य की जद से बाहर ही रहा है / समाज के हाशिये पर रहने वाला समाज हर उस माध्यम महरुम रखा गया है जिससे समाज मे परिवर्तन आ सकता था /

अजय नावरिया ने अपने विचार प्रकट करते हुए कहा की यह विशेषांक नए लेखको की एक आकाशगंगा है, जिसे रमणिका जी ने खोजा है / उन्होने समाज व दलितों की निर्मित छवि को लेकर मनोबैज्ञानिक सवाल उठाए /

रत्न कुमार साम्भरिया ने कहा "भारत बर्ष एक मात्र  ऐसा देश है, जहाँ एक ही देश मे दो देश बसते  हैं / सामाजिक व्यवस्था मे एक सवर्ण देश है, और दुसरा अवर्ण / यहाँ जिस देश की चर्चा की जा रही है, वह अस्पृश्यओ मे अस्पृश्य और दलितों मे दलित हैं / उस देश का नाम है मेहतर / उन्होने स्वीकार किया कि रमणिकाजी का यह कहना उचित है कि यदि भारत में एक व्यक्ति जो मैला ढोता है, तो पुरा भारत मैला ढोता है / 


मस्तराम कपूर ने कहा कि दलितों को सकीर्ण भाव से सोचना नही चाहिए / गान्धी जी को गाली देने से आन्दोलन को कोइ लाभ नही होगा / १९३५ में गान्धी जी और डा. अम्बेडकर में अच्छी सहमती बन गइ थी /

जय प्रकाश कर्दम ने कहा कि गान्धीजी की सहमती डा. अम्बेडकर से बिल्कुल नहीं  थी /  जिन दिनो की बातें कपूर साहब ने की हैं उन दिनो उसी समय गोलमेज सम्मेलन में अम्बेडकर और गान्धी के मतभेद उजागर हो रहे थे / 


बिमल थोरात ने कहा कि अब दलित जाग रहा है और आने वाले दिनों में मलमुत्र तो होगा, परन्तु मलमुत्र ढोने वाले नही होंगें /

सभा के अध्यक्ष एवम सफाई कर्मचारी आन्दोलन के अध्यक्ष विल्सन वैज्वाड़ा ने भावपूर्ण ढंग से अपने अनुभव बताते हुए कहा सबके अनुभव अलग-अलग जरुर हैं परन्तु कारण एक ही है, वह है जातिवाद /



अन्त में रमणिका फाउन्देसन के प्रचार प्रभारी सुधीर सागर ने धन्यबाद ज्ञापन किया /

   डा. सुधीर सागर
  मीडिया प्रभारी,युद्धरत आम आदमी
ए. २२१, डिफेन्स कलोनी
      नई दिल्ली -२४, फोन न . २४४३३३३५६


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