मंगलवार, 19 नवंबर 2013

ओमप्रकाश वालमीकि के निधन पर शोकसभा

दलित साहित्य के अहम हस्ताक्षर ओमप्रकाश वाल्मीकि के निधन पर रमणिका फाउंडेशन, जनवादी लेखक संघ और दलित लेखक संघ के संयुक्त तत्वावधान में रमणिका फाउंडेशन के ए-221 स्थित आवासीय कार्यालय में एक शोकसभा का आयोजन किया गया जिसमें दिल्ली और आसपास के 30 से ज्यादा साहित्यकारों ने उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि दी।
उल्लेख्य है कि स्व. वाल्मीकि जी का जन्म 30 जून 1950 को उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के बरला गांव में हुआ था।  17 नवंबर 2013 को उनका निधन हो गया। वक्ताओं ने इसे हिन्दी साहित्य की अपूरणीय क्षति बताया। उन्होंने कहा कि हिन्दी पट्टी में दलित साहित्य को अपनी रचनाओं के जरिये स्थापित करने का काम ओमप्रकाश वालमीकि ने किया। उनकी आत्मकथा जूठन ने राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दलित साहित्य को पहचान दिलाई। वक्ताओं ने वालमीकि जी के साथ जुड़े अपने संस्मरण सुनाये, उनके साहित्य सृजन पर अपने विचार रखे। दिवंगत आत्मा की शांति के लिये दो मिनट का मौन रखा।  रमणिका गुप्ता जी ने उनके मिशन के प्रति आस्था प्रकट करते हुए उसे आगे बढ़ाने का संकल्प लेने का आह्वान किया।
शोकसभा को प्रो एमपी वर्मा, जनवादी लेखक संघ के महासचिव चंचल चौहान, हेमलता माहेश्वर, महेश कुमार, संजीव कुमार, सत्यानंद निरूपम, अशोक माहेश्वरी, अनिता भारती, धर्मवीर सिंह, सरोज श्रीवास्तव स्वाति, अनीता सोनी, अंजली देशपांडे, सरोज कुमार महानंदा, भगवान प्रसाद श्रीवास्तव, भरत तिवारी, जितेंद्र श्रीवास्तव, जवरीमल्ल पारख, मदन कश्यप, कृष्ण परख, रमेश मंगी, हीरालाल राजस्थानी, केपी मौर्य, विमल सरकार, शिखा गुप्ता, ओम सिंह अशफाक, मित्र  रंजन, अनामिका आर्या,डा. पूरन सिन्हा, डा. अभय कुमार सहित अन्य लोगों ने संबोधित किया। शोकसभा का संचालन अजय नावरिया ने किया.

शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

रमणिका जी अस्पताल से वापस लौटीं


रमणिका जी अपोलो अस्पताल से इलाज के बाद घर लौट आयी हैं। अब वे स्वस्थ हैं। 2 नवंबर को  उन्हें देर रात को अस्पताल में भर्ती करना पड़ा था। 13 नवंबर को वे अस्पताल से डिसचार्ज हुईं। घर पहुंचते ही लेखन संपादन कार्य में सक्रिय हो गईं।  इस बीच देश के विभिन्न इलाकों से उनके शुभचिंतकों के फोन आते रहे। जो आ सकते थे अस्पताल में मिलने आये। हम रमणिका फाउंडेशन की ओर से उन सभी शुभचिंतकों को धन्यवाद देते हुए स्नेह बनाये रखने की अपील करते हैं।

---रमणिका फाउंडेशन

शनिवार, 2 नवंबर 2013

राजेंद्र यादव का गुजरना एक युग का गुजरना

मोहन राकेश और कमलेश्वर के बाद हिन्दी साहित्य का एक और स्तंभ ढह गया। हंस पित्रका के संपादक राजेंद्र यादव नहीं रहे। 29 अक्टूबर 2013 की रात 12 बजे सांस रुक जाने के कारण उनका देहांत हो गया। वे हिन्दी कथा लेखन के एक स्कूल थे। उन्होंने प्रेमचंद के हंस की परंपरा को विस्तार दिया। उनके सानिध्य में नवोदित कथाकारों की एक पीढ़ी सामने आयी। उन्होंने लेखन के माध्यम से दलित आंदोलन को विस्तार दिया। हिन्दी जगत का दलितों के प्रति नज़रिया बदलने का काम किया। स्त्री-मुक्ति के लेखन को नया आयाम दिया। रमणिका फाउंडेशन और युद्धरत आम आदमी परिवार उनकी मृत्यु से शोक संतप्त है और उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करता है। रमणिका जी उन्हें अपना गुरु मानती रही हैं। राजेंद्र यादव का गुजरना अत्यंत ही पीड़ादायक है लेकिन मृत्यु के बाद उनका ब्राह्मणवादी आडंबर से गुजरना और भी अधिक पीड़ादायक है। जिस व्यक्ति ने जीवन भर ब्राह्मणवादी आडंबरों, अनुष्ठानों और अंधविश्वासों का विरोध किया उसका अंतिम संस्कार ब्राह्मणवादी तरीके से हो यह चिंता ही नहीं शोक का विषय है।

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